गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरु, अवतार, अपना ही उदाहरण? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्म मार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते हैं; तुझे भी कर्म-मार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मों की आवश्यकता से परे हूँ क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूँ किसी भी अर्थ की प्राप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मैं कर्म करता हॅूं। कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूँ जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूँ और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूँ जिसका केवल अशं दिखायी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते। जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि-शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य-रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जैसे मैं अवतार-रूप में हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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