गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 132

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

14.दिव्य कर्म का सिद्धांत


तब उसके कर्मों का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की ओर जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से, बुद्धि-भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगें-दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरुषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा, इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं, वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी-वैसी नहीं है; इसका प्रभा, इसका उदाहरण इतना सामर्थ्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता। तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा?

वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरु, अवतार, अपना ही उदाहरण? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्म मार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते हैं; तुझे भी कर्म-मार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मों की आवश्यकता से परे हूँ क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूँ किसी भी अर्थ की प्राप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मैं कर्म करता हॅूं। कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूँ जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूँ और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूँ जिसका केवल अशं दिखायी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते। जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि-शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य-रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जैसे मैं अवतार-रूप में हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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