गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
मनुष्य का यह पुरातन और सतत अनुभव है। वह नैर्व्यक्तिक और अनंत पुरुष की और-जो विशुद्ध, ऊर्ध्व और सब वस्तुओं में और सत्ताओं में एक और सम है, जो प्रकृति में नैर्व्यक्त्कि और अनंत है, जो जीवन में नैर्व्यक्तिक और अनंत है, जो उसकी अंतरंगता में नैर्व्यक्ति और अनंत है-जितना अधिक खुलता है उतना ही अहंकार तथा सांत के दायरे से कम बंधता है, और उतना ही बंधक विशालता, शांति और निर्मल आनंद का अनुभव करता है, जो अमोद, सुख और चैन उसे सांत से ही मिल जाता है या उसका अहंकार अपने ही अधिकार से प्राप्त कर सकता है, वह क्षणिक, क्षुब्द और आरक्षित होता है। अहंभाव में और उसकी संकुचित धारणाओं, शक्तियों और सुखों में ही डूबे रहना इस संसार को सदा के लिये अनित्यं असुखं बना लेना है; सांत जीवन सदा ही व्यर्थता के भाव से व्यथित रहता है और इसका मूल कारण यह है कि सांतता जीवन का समर्ग या उच्चतम सत्य नहीं है; जीवन तब तक पूर्णतया यथार्थ नहीं होता जब तक वह अनंत की भावना की ओर नहीं खुलता। यही कारण है कि गीता ने अपनी कर्मयोग की शिक्षा के आरंभ में ही ब्राह्मी स्थिति पर, नैर्व्यक्तिक जीवन पर इतना जोर दिया है, जो प्राचीन मुनियों की साधना का महान् लक्ष्य था। क्योंकि जिस नैर्व्यक्ति अनंत एक में विश्व की चिरंतन, परिवर्तनशील, नानाविध कर्मण्यताओं को स्थायित्व, सरंक्षण और शांति प्राप्त होती है वही अचल अविनाशी आत्मा, अक्षर, ब्रह्म ही है, जो उन सबके ऊपर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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