गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
पुरुष और प्रकृति सत्ता के युगल तत्त्व हैं जो एक-दूसरे से अलग नहीं किये जो सकते, और जब तक हम प्रकृति में निवास करते हैं तब तक प्रकृति में हमारा कर्म भी होता ही रहेगा, चाहे आज्ञानी जिस प्रकार कर्म करता है उससे ज्ञानी का कर्म अपने प्रकार और अर्थ में भिन्न ही क्यों न हो। संन्यास तो करना ही होगा, पर वास्तविक संन्यास कर्म से भागना नहीं, बल्कि अहंकार और कामना का वध करना है और इसका मार्ग कर्म करते हुए भी कर्मफल की आसक्ति का त्याग और प्रकृति को कर्म की कन्नीं जानकर उसे अपने कर्म करने देना तथा साक्षी और भर्तारूप से पुरुष के अंदर वास करकर प्रकृति के कर्मों को देखना और संभालना पर उन कर्मों का उनके फलों से आसक्त न होना, इससे अहंकार अर्थात् सीमाबद्ध विक्षुब्द व्यष्टिभाव शांत होता और एक नैर्व्यक्तिक आत्मा के चैतन्य में निमज्जित हो जाता है। हमारी दृष्टि के आगे प्रकृति के कर्म जीते-जागते, चलते-फिरते और कर्मरत दिखायी देने वाले इन सब भूत प्राणियों के द्वारा सर्वथा प्रकृति की ही प्रेरणा से उस एक अनंत आत्मसत्ता में होते रहते हैं; हमारा अपना सांत जीवन भी इन्ही भूतसत्ताओं में से एक है, ऐसा दीख पड़ता और अनुभव होता है। इसके द्वारा होने वाले कर्म उस सदात्मा के कर्म नहीं लगते जो सदा निश्चल-नीरव नैवर्यक्त्कि एकत्व है, बल्कि ऐसे दिखायी देते और अनुभूत होते हैं कि वे प्रकृति के ही हैं। पहले अहंकार यह दावा करता था कि ये उसके कर्म हैं और इसलिये इन कर्मों को हम अपने कर्म समझते थे; पर अब अहंकार तो मर गया इसलिये कर्म भी हमारे नही रहे बल्कि प्रकृति के हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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