विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 26श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी हैकुर्वन्ति हि त्वयि रतिं.....चिरादरविन्दनेत्र
गोपियाँ कहती हैं श्रीकृष्ण से कि तुम्हारे धर्म के निरूपण में कोई त्रुटि नहीं। एक स्त्री का धर्म है पति, पुत्र, सुहृद् की सेवा, उनको संतुष्ट रखना, पर उससे भी बड़ा धर्म है, परमेश्वर से प्रेम। एक धर्म है, एक परमधर्म है। ताप से बचने के लिए, पाप से बचने के लिए, सामाजिक उच्छृंखलता से बचने के लिए, वासना प्रेरित इन्द्रियों के भोग से बचने के लिए, धर्म की आवश्यकता है। नहीं तो ये वासनायें इंद्रियों के माध्यम से ले जाकर गड्ढे में गिरा दें। पापकर्म आकर नरक में ले जाय। सब कुछ मन के अनुसार नहीं किया जा सकता। मन जिस चीज को कहे कि यह खा लो तो क्या खा लोगे? मन कहें कि यह कर डालो तो क्या कर डालोगे? मन कहेगा कि इससे बोल दो तो क्या बोल दोगे? एक नियंत्रण की आवश्यकता सबके जीवन में होती है। एक ऐसी जगह है, सबके जीवन में, जहाँ अपने संग्रह को, अपने भोग को, अपने कर्म को, अपने भावों को रोकना पड़ता है, अगर किसी के जीवन में ऐसी जगह नहीं है तो वह पशु से भी गया-बीता है। इसी को धर्म कहते हैं। जीवन में धर्म का होना आवश्यक है। अब परमधर्म यह है कि जो आप जहाँ बैठे हैं वहाँ से आप को उठाकर जहाँ पहुँचना चाहते हैं वहाँ पहुँचा देता है। दोषों से बचाने वाला है धर्म और आपको अपने इष्टदेव तक पहुँचा देने वाला है परमधर्म है। जैसे आपके घर की दीवार गिरने वाली हो तो उसकी मरम्मत करना, यह दूसरा कार्य है, और इसको बढ़िया रंग-रोगन से यह दूसरा कार्य है। दोष का अपनयन दूसरी चीज है, और अपने ईष्टदेव को मिला देना यह दूसरी चीज है। अगर गोपियाँ अपने घर का काम करती हैं, पति, पुत्र आदि की सेवा करती हैं तो उन्हें नरक नहीं होता, पाप नहीं लगता; पर पाप ना लगना, नरक न जाना दूसरी बात है और ईश्वर को प्राप्त करना दूसरी बात है। तो यह जो गोपियों के हृदय में भक्ति है, प्रीति है, वह ईश्वर को प्राप्त कराने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत, 10.29, 33
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