विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्ष
अपने हृदयकमल में देखो कि श्रीकृष्ण के मिलन की कामना के बाण से पीड़ित है गोपी और भगवान के आश्लेष, आलिंगन की प्राप्ति के लिए चिरकाल से उत्सुक है। अपने हृदय में ऐसा ध्यान करते हैं कि-
यह कोई निर्गुण, निराकार, निर्विकार का ध्यान थोड़े ही है। यह गोपी का ध्यान है और मन में कृष्ण आवें, इसलिए ध्यान है। यह प्रेम-पन्थ अलग है, निराला है। अच्छा आओ! जब श्रीकृष्ण ने कहा- हटो, लौट जाओ। तो गोपी जो श्रीकृष्ण के चारों ओर हैं, बोलीं- क्या सब एक साथ बोलीं या एक-एक करके? एक साथ बोलीं तो एक सी बात ही कैसे बोल गयीं? परंतु उन सबका श्रीकृष्ण के प्रति समानभाव था। अतः समानभाव होने से समानवाणी निकल सकती है। कभी-कभी हम देखते हैं कि सूरदास का और हितहरिवंश का दोनों का पद एक सा है, क्योंकि जब भाव दोनों का समान है तो समानपद का स्फुरण हो गया। नारायण। हमको पहले विश्वास शायद न होता, पर एक बार हम दो जने रेलगाड़ी में आपस में निश्चय करके बैठे- दूर-दूर बैठे- कि आओ भगवान का ध्यान करके कोई कविता लिखें। जब लिखी और मिलायी तो दोनों ने जो लिखा था वह एक ही कविता लिखी थी। वह सज्जन अभी हैं। हमको तो यह बात भूल गयी थी क्योंकि बचपन की बात है, लेकिन उन्होंने जब अपना संस्मरण लिखकर भेजा तो उसमें इस बात की चर्चा थी, तब हमको भी याद आ गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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