विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनीएक जगह भागवत् में लिखा है कि जब बाँसुरी लेकर श्रीकृष्ण उसमें अपना स्वर फूँकते हैं तो- जातहर्ष उपरम्भति विश्वम्। वंशी की ध्वनि से मानो संपूर्ण विश्व का आलिंगन करते हैं। हाथों से आलिंगन नहीं करते हैं, अपनी वंशी ध्वनि से संपूर्ण विश्व का आलिंगन करते हैं। लोगों को वंशी-ध्वनि का मधुर-मधुर स्पर्श कान में त्वचा, हृदय में होता है। ‘वृहद् ब्रह्म संहिता’ में वंशीध्वनिका विलक्षण वर्णन किया है। कहते हैं- जिसके कान में वंशीध्वनि पड़ती है, उसकी सब इन्द्रियाँ अपना स्थान छोड़कर कान में चली जाती हैं। मानो आँख अपने गोलकमें- से नहीं देखती है, वह कान से मिल जाती है, देखती नहीं, जीभ स्वाद नहीं लेती, त्वचा छुती नहीं और हृदय कलेजे के पास नहीं रहता, वहाँ से चलकर कान में आ जाता है। हृदय वंशी सुनता है, नासिका वंशी सूघँती है, जिह्रा वंशी का रस लेती है, त्वचा वंशी का स्पर्श प्रास करती है और नेत्र वंशीध्वनिका रूप देखते हैं। ऐसी तन्मयता, होती है कि केवल लोक में ही नहीं कि मोर नाचने लगे वंशी ध्वनि सुनकर, कोयलें कुहुक- कुहुक करनें लगीं और वृक्षों से मधुक्षरण होने लगा, नदियों का बहना बन्द हो गया, पाषाण द्रवित हो गये, गायों का घास चरना बन्द हो गया, देवियों के अपने वस्त्र की विस्मृति हो गयी। ये केवल बाहरी बात ही नहीं, यह हुआ कि जैसे- गोपियों ने वंशीध्वनि सुनकर वृन्दावन छोड़ा वैसे श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि सुनकर के सारी इन्द्रियाँ अपना स्थान छोड़ देती हैं, अपना विषय छोड़ देती हैं और हृदय अपना स्थान छोड़ देता है। शब्दमय हो जाती है सृष्टि, सृष्टि वाङ्मयी, शब्दामयी हो जाती है। नारायण। तब गन्ध नहीं, रस नहीं, रूप नहीं, स्पर्श नहीं, केवल शब्द, शब्द- भगवान की वंशीध्वनि से निकला हुआ जो शब्द है, वह लोगों के दिल से मिलकर प्राण से मिल जाता है। वंशीध्वनि में तो प्राण है न। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज