श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
“जैसे तरंगों के बिना सरोवर, मेघों के बिना आकाश, सर्पों के बिना चन्दनवन, कलाओं की अस्थिरता के बिना चन्द्रमा, चिन्तामुक्त हो जाने पर राजा अथवा मन्थन करने वाले मन्दराचल के बिना क्षीरसिन्धु की अवस्था होती है, वैसे ही भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्पों के बखेड़े शान्त हो जाने पर जो मन एकमात्र आत्मरूप में स्थिर हो जाता है, सन्तापशून्य प्रकाश, जड़ताहीन रस अथवा पोलेपन से रहित अवकाश की तरह होकर जिस समय मन निज हित का साधन करके आनन्दमय स्वरूप देखता है और अपने स्वभाव का ठीक वैसे ही त्याग कर देता है, जैसे सर्दी से शून्य हो जाने वाला अवयव स्पर्श ज्ञान से रहित हो जाता है और फिर सर्दी की बाधा का अनुभव नहीं करता, उस समय मन को निष्कलंक तथा पूर्ण चन्द्रमण्डल की भाँति जो उत्तम सौन्दर्य उपलब्ध होता है, मन की उस अवस्था में वैराग्य से क्लेश नहीं के समान हो जाते हैं; मन की चंचलता का अवसान हो जाता है और एकमात्र आत्मबोध की पूर्णता ही अवशिष्ट रहती है। इसीलिये शास्त्रोपदेश करते समय जो मुख हिलाना-डुलाना पड़ता है, वह बन्द हो जाता है और वह प्रयत्न ही वाणी का सूत्र हाथ में न लेकर केवल मान स्वीकृत करता है। आत्मोपलब्धि हो जाने पर मन का मनत्व भी समाप्त हो जाता है और लवण जैसे जल में घुलकर लीन हो जाता है, वैसे ही मन भी आत्मतत्त्व में विलीन हो जाता है। फिर ऐसी स्थिति में मन के वे भाव भला उत्पन्न ही कहाँ से हो सकते हैं जो इन्द्रियों के मार्ग से दौड़कर विषयरूपी ग्राम में पहुँचते हैं? फिर जैसे करतल में बाल नहीं होते, वैसे ही मन में विषय-भावनाओं का रत्तीभर भी स्थान नहीं होता। किंबहुना हे अर्जुन! मन की जब ऐसी स्थिति हो जाती है तब यह समझना चाहिये कि वह मन मानसिक तप का पात्र होता है। पर यह विवेचन बहुत हो चुका। मैंने इस प्रकार तुम्हें मानस तप के समस्त लक्षण बतला दिये हैं।” बस यही भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था। तदनन्तर वे फिर कहने लगे-“इस प्रकार शरीर, वाणी और मन के सम्बन्ध से जो तप के तीन प्रकार होते हैं, वे मैंने तुम्हें अच्छी तरह बतला दिये हैं। अब त्रिगुणों के कारण इन त्रिविध तपों के जो तीन भेद होते हैं, उसका विवेचन भी अपने बुद्धि-बल के द्वारा भली-भाँति ग्रहण करो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (225-239)
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