श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
पारस पत्थर जैसे लोहे को बिना क्षतिग्रस्त किये और बिना उसके स्वरूप में परिवर्तन किये उसे विशुद्ध स्वर्ण बना देता है, ठीक वैसे ही जिसकी वाणी में ऐसी साधुता दिखायी देती है कि वह किसी को बिना कष्ट पहुँचाये आस-पास के लोगों के लिये अत्यन्त मधुर तथा सुखकर होती है; जिसका भाषण होता तो किसी एक व्यक्ति के उद्देश्य से है, पर फिर भी सबके लिये वैसे ही हितकर होता है, जैसे जल जाता तो वृक्ष का पोषण करने के लिये है, परन्तु वह जाते-जाते स्वभावतः तृणों को भी जीवन प्रदान करता है, जो भाषण अमृत की उस दिव्य गंगा की भाँति होता है जो प्राप्त होने पर जीवों को अमृत प्रदान तो करती ही है पर साथ ही स्नानार्थियों के पाप और ताप भी दूर करती है, केवल यही नहीं, अपितु जिह्वा को भी मधुर स्वाद प्रदान करती है और यही कारण है कि जिस भाषण से अविचार दूर हो जाता है; अपना अनादि स्वरूप प्रकट होता है, जो श्रवण करने में अमृतवत् प्रिय जान पड़ता है और जिसके श्रवण करने से मन नहीं भरता और जो यह नियम बना लिया होता है कि जब कोई पूछे, तभी वह मुख खोलता है अन्यथा मौन धारण कर वेदों और संहिताओं, भगवन्नाम इत्यादि का ही आवर्तन करता है; जो त्रिवेदों का अपने वाणीरूपी मन्दिर में प्रतिष्ठापन करके अपनी वाणी को मानो वेदशाला ही बना लेता है और जिसमें शिव का, विष्णु का अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य देवता का नाम अहर्निश समानरूप से उच्चारण किया जाता है, उसी का नाम वाचिक तप है। इसके उपरान्त लोकपालों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि अब तुम मानसिक तप का भी वर्णन सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (216-224)
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