श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
अनवरत पावन स्थानों में निवास करने का संकल्पक मैं क्षेत्र संन्यासी जिनके विशुद्ध मन में निवास करता हूँ, जिन्हें वैराग्य कभी सुप्तावस्था में भी त्यागकर कहीं नहीं जाता; जिनकी श्रद्धायुक्त भावनाओं में धर्म का साम्राज्य रहता है, जिनके मन में निरन्तर विवेक की आर्द्रता रहती है, जो ज्ञानरूपी गंगा में स्नान कर चुके होते हैं, जो पूर्णतारूपी भोजन कर तृप्त हो चुके होते हैं, जो शान्तिरूपी बेल में मानो नूतन पल्लव की भाँति निकले हुए होते हैं, जो उस परब्रह्म में निकले हुए अंकुर के समान होते हैं, जिसमें जगत् की परिणति होती है, जो धैर्य मण्डप के खम्भे जान पड़ते हैं, जो आनन्दरूपी समुद्र में डुबाकर भरे हुए कुम्भ के समान होते हैं, जिनका भक्ति के प्रति इतना प्रगाढ़ अनुराग होता है कि उसके समक्ष मुक्ति को भी ‘पीछे हट’ ऐसा कहते हैं, जिनके सहज आचरण में भी नीति जीवितरूप से विहार करती हुई जान पड़ती है, जिनकी सारी इन्द्रियाँ शान्तिरूपी अलंकार को धारण की होती हैं और जिनका चित्त इतना व्यापक होता है कि वह मुझ-जैसे सर्वव्यापक को भी चतुर्दिक् आच्छादित कर लेता है, इस प्रकार जो महानुभाव मेरा वह सत्य-स्वरूप पूर्णरूप से जान लेते हैं, जो दैवी सम्पत्ति का सौभाग्य ही है और दिनोंदिन बढ़ते हुए प्रेम से मेरा भजन करते हैं, पर जिनका मनोधर्म द्वैतभाव का कभी स्पर्श भी नहीं करता, हे पाण्डव! वे लोग मद्रूप होकर ही रहते हैं। वे मेरी सेवा तो करते हैं; परन्तु उस सेवा में जो एक विलक्षणता होती है, वह भी मनोयोगपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (188-196)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |