श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
फल की कामना रखने के कारण उनके हृदय में काम का प्रवेश हो जाता है और उसी काम के संसर्ग से ज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। इससे वे बाह्याभ्यन्तर अज्ञानरूपी भयानक अन्धकार में जा गिरते हैं। यद्यपि मैं उनके निकट ही रहता हूँ, पर फिर भी वे मुझे नहीं देख पाते और तब वे तन-मन से अन्यान्य देवों की आराधना में तत्पर हो जाते हैं। इस प्रकार के मनुष्य पहले से ही प्रकृति (माया) के दास बने हुए रहते हैं; तिस पर से विषय-भोग के चक्कर में उलझ-कर वे और भी अधिक दीन-हीन हो जाते हैं और तब वे लोलुपता के कारण अन्य देवताओं की भक्ति बड़े कौतुक के साथ करते हैं। वे स्वयं अपनी ही बुद्धि से स्वयं के लिये न जाने कितने-कितने नियम बना लेते हैं, न जाने कितनी पूजा-सामग्री एकत्रित कर लेते हैं और न जाने विधिपूर्वक कितनी विहित वस्तुएँ देवताओं को अर्पण करते हैं।[1]
फिर भी भक्त अपनी इच्छानुसार जिस देवता का भजन-पूजन करना चाहे, उस देवता का भजन-पूजन करे, पर उस भक्त के उस भजन-पूजन का फल मैं ही पूर्ण करता हूँ। समस्त देवी-देवताओं में मैं ही निवास करता हूँ, इस प्रकार की निश्चयात्मक बुद्धि उसकी नहीं रहती। यही कारण है कि उसके अन्तःकरण में यह भेदभाव बना रहता है कि जितने देवी-देवता हैं, वे सब वास्तव में पृथक्-पृथक् ही हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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