श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
जिस समय चैतन्य के आश्रय से अकर्तृत्व स्थिति प्राप्त होती है, उस समय समस्त इन्द्रियों की वृत्तियाँ अपने-अपने विषयों में विचरण करती रहती हैं। जैसे दीपक के प्रकाश में गृह के सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं, वैसे ही कर्मयोगियों के देह-सम्बन्धी सारे कार्य होते रहते हैं। कर्मयोगी सब कर्म करता है, पर जैसे जल में रहते हुए भी कमल-पत्र उस जल से नहीं भींगता, वैसे ही कर्म करते हुए भी कर्मयोगियों के साथ कर्म का लेप नहीं होता।[1]
देखो! जो कर्म बुद्धि के समझ आने के पूर्व और मन में विचार उत्पन्न होने के पहले ही होते हैं, इन कर्मों के व्यवहार को ‘कायिक’ व्यवहार कहते हैं। यही बात मैं तुम्हें बहुत ही सरल तरीके से बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। जैसे कोई बालक निष्कारण यूँ ही कुछ-न-कुछ चेष्टा करता रहता है, वैसे ही योगिजन मन में किसी प्रकार की वासना न रखते हुए केवल शरीर से ही कर्मों का व्यवहार करते हैं। फिर जब पंचमहाभूतों से निर्मित यह शरीर निद्रावस्था में रहता है, तब वैसे ही अकेला अपना समस्त व्यापार चलाता रहता है, जैसे वह स्वप्नावस्था में करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (48-50)
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