ज्ञानेश्वरी पृ. 131

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग

हे धनुर्धर! इसमें एक विलक्षण बात यह है कि यह वासना इस ढंग से अपना विस्तार करती है कि वह शरीर को एकदम भान भी नहीं होने देती और उसे सुख-दुःख के भोगरूपी भँवर में डाल देती है अर्थात् सुख-दुःख को भोगने के लिये बाध्य करती है। इन्द्रियों को जिन व्यापारों की खबर कानों कान नहीं मिलती, उन व्यापारों को मानस-व्यापार कहते हैं। योगिजन इन मानस-कर्मों को तो करते हैं, पर उनके मन में ‘अहंभाव’ का दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहता, इसलिये वे कर्म उनके लिये बन्धनकारक नहीं होते। जब कोई व्यक्ति पिशाचबाधा से बाधित होता है, तब उसकी ऐन्द्रिक चेष्टाएँ विक्षिप्त-सी जान पड़ती हैं। उसे अगल-बगल के सब लोगों के स्वरूप तो दिखायी देते हैं, यदि उसे आवाज देकर बुलाया जाय तो वह सुनता भी है और वह स्वयं अपने मुख से बोल भी सकता है, किन्तु देखने से यह नहीं ज्ञात होता कि वह कुछ समझता भी है। यह सब रहने दें, वह प्रयोजन के बिना अर्थात् कोई हेतु न रखते हुए जो कुछ करता है, वे सब कुछ इन्द्रियों के कर्म हैं, ऐसा समझो। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, सब जगह जानने का जो कार्य है, वह सचमुच बुद्धि का है, ऐसा तुम समझो, “वे लोग बुद्धिपूर्वक पूरे मनोयोग से सारे कर्मों को तो करते हैं, पर अपनी निष्कर्म-वृत्ति के कारण वे मुक्त ही रहते हैं; क्योंकि बुद्धि से लेकर शरीरपर्यन्त उनमें अहंभाव का स्मरण ही नहीं रहता और इसीलिये वे सब प्रकार के कर्मों का आचरण करते हुए भी विशुद्ध ही बने रहते हैं। हे अर्जुन! कर्तृत्व अहंभावना से रहित होकर सब तरह के कर्मों को सम्पन्न करना ही ‘निष्काम कर्म’ है और गुरुकृपा से मिलने वाला यह रहस्य ज्ञान उसे मिला रहता है। अब शांत रस की बाढ़ मर्यादा छोड़कर उछल रही है, क्योंकि बोलने से अवर्णनीय का भी व्याख्यान करने में आया अर्थात् जिसका विवेचन करना अत्यन्त कठिन है, उसका विवेचन हुआ। जिनके इन्द्रियों की पराधीनता भली प्रकार से नष्ट हो गयी है, उन्हीं को यह सुनने की योग्यता प्राप्त होती है।

किन्तु यह विशद व्याख्यान सुनकर श्रोतागण कहते हैं-“अब विषयान्तर की बहुत-सी बातें हो चुकी। यदि कथा का सूत्र ऐसे ही छोड़ दिया जायगा तो श्लोकों की संगति ही नहीं बैठेगी। जिस तत्त्व का आकलन करने में मन को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और बुद्धि भी जिसका पता लगाने में सफल नहीं होती, वही तत्त्व इस समय परम सौभाग्य से तुम्हें वाणी के सहयोग से बतलाया गया है। जो तत्त्वज्ञान स्वभावतः शब्दातीत है, वही जब तुम्हें शब्दों के द्वारा बतला दिया गया, तब फिर शेष ही क्या रहा? अतः अब इन सब बातों को छोड़ करके मूल कथा को ही आगे बढ़ाना चाहिये।” कथा सुनने के लिये लालायित श्रोताओं की उत्कट अभिलाषा को देखकर श्रीनिवृत्ति नाथ का दास मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि हे श्रोतागण! अब श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद ध्यानपूर्वक सुनो। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि अब मैं सिद्धि प्राप्त कर चुके योगियों के सम्पूर्ण लक्षण स्पष्ट रूप से बतलाता हूँ, उसे मन लगाकर सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (51-70)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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