श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
क्योंकि हे पार्थ! जब ऐसे मनुष्य को इस बात का स्मरण नहीं रहता कि मैं देहरूप हूँ, तो भला उसमें कर्तृत्व किस तरह लग सकता है? इस प्रकार योगयुक्त पुरुषों में देह त्याग के बिना ही परब्रह्म के समस्त लक्षण दिखायी पड़ते हैं। सामान्यतया वह भी दूसरे साधारण मनुष्यों की तरह देह धारण करके सब प्रकार के कर्मों का आचरण करता हुआ दिखायी पड़ता है। कर्मयोगी भी दूसरे मनुष्यों की ही तरह नेत्रों से देखता है और श्रवणेन्द्रियों से सुनता है; परन्तु उसके सम्बन्ध में विलक्षण बात यही होती है कि वह इन इन्द्रियों के कर्मों में आसक्त नहीं होता। उसे स्पर्श का भी ज्ञान होता है और वह घ्राणेन्द्रिय से सुगन्ध को भी सॅूंघता है। वह प्रसंगानुसार बोल भी सकता है। वह आहार को भी स्वीकार करता है, त्यागने योग्य वस्तुओं का त्याग भी करता है और निद्रा के समय सुखपूर्वक सोता भी है। वह स्वेच्छानुसार चलता-फिरता भी है। इस प्रकार वह सब तरह के कर्मों को करता रहता है। हे पार्थ! अब मैं एक-एक बात कहाँ तक कहूँ! वह श्वासोच्छ्वास और पलकों को मूँदने और खोलने की क्रियाएँ भी करता है, पर कर्मयोगियों को प्राप्त होने वाले स्वानुभव के सामर्थ्य से वह सब कर्मों का आचरण करता हुआ भी ‘अकर्ता’ ही बना रहता है, क्योंकि जब तक वह मायारूपी शय्या पर सोया हुआ था, तब तक तो वह स्वप्न के झूठे सुख के चक्कर में पड़ा हुआ था; पर अब ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो जाने के कारण वह जागकर होश में आ जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (38-47)
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