गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
गीता भावनाओं और अनुभूतियों की एक ऐसी भूमिका पर विचरण करती है जो आधुनिक मन मन की भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका से ऊंची है। आधुनिक मन वस्तुतः अभी अहंकार के फंदों को काटने के लिये संघर्ष करने की अवस्था में है; परंतु अब भी उसकी दृष्टि लौकिक है और उसका भाव आध्यात्मिक नहीं, बौद्धिक और नैतिक है। देश-प्रेम, विश्वबंधुत्व, समाज-सेवा, समष्टि-सेवा, मानव-सेवा, मानव-जाति का आदर्श या धर्म, ये सब व्यष्टिगत, पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय अहंकारूपी पहली अवस्था से निकलकर दूसरी अवस्था में जाने के लिये सराहनीय साधन हैं, इस अवस्था में पहुँचकर व्यष्टि, जहाँ तक कि बौद्धिक, नैतिक और भावावेगमयी भूमिकाओं पर संभव है, यह अनुभव करता है कि मेरी अस्तित्व दूसरे सब प्राणियों के अस्तित्व के साथ एक है। यहाँ यह जान लेना चाहिये कि इन भूमिकाओं पर वह इस अनुभव को पूरे तौर पर और ठीक-ठीक तथा अपनी सत्ता के पूर्ण सत्य के अनुसार नहीं प्राप्त कर सकता। परंतु गीता के विचार इस दूसरी अवस्था के भी परे जाकर हमारी विकसनशील आत्म-चेतना की एक तीसरी अवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं जिसमें पहुँचने के लिये दूसरी अवस्था केवल आंशिक प्रगति है। भारत का सामाजिक झुकाव व्यक्ति को समाज के दावों के अधीन रखने की और रहा है, किंतु भारत के धार्मिक चिंतन और आध्यात्मिक अनुसंधान का लक्ष्य सदा ही उदात्तरूप से वैयक्तिक रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.20-26
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