गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
परंतु जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, जब मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है और अपने-आपको तथा जगत् को मिथ्या अहंकर की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि प्राणिमात्र को आत्मा में, ईश्वर में देखता है और आत्मा को, ईश्वर को प्राणिमात्र में देखता है तब उसका कर्म कैसा होगा क्योंकि कर्म तो फिर भी रहेगा ही जो उसके ब्राह्मी स्थिति के ज्ञान से उद्भूत होता है, और फिर उसके कर्मों से विश्वगत या व्यक्तिगत हेतु क्या होगा? यही अर्जुन का प्रश्न[5] है, किंतु अर्जुन ने जिस दृष्टिबिन्दु से प्रश्न किया था उससे अलग ही दृष्टिबिंदु से उत्तर दिया गया। अब बौद्धिक, नैतिक, भावावेगमय स्तर की कोई वैयक्त्कि कामना उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो छोड़ी जा चुकी,-नैतिक हेतु भी छोड़ा जा चुका, क्योंकि मुक्त पुरुष पाप-पुण्य के भेद से ऊपर उठकर, उस महिमान्वित पवित्रता में रहता है जो शुभ और अशुभ के परे है। निष्काम कर्म के द्वारा पूर्ण आत्म-विकास करने के लिये आध्यात्मिक आवाहन भी अब उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इस आवाहन का तो उत्तर मिल चुका, उसका आत्म-विकास सिद्ध और पूर्ण हो चुका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक यूनानी पर्वत जो हिमालय की तरह देवताओं की वासभूमि की तरह देवताओं की वासभूमि माना जाता है।
- ↑ प्राचीन यूनानी पुराणों में वर्णित एक देवता जो काव्य, संगीत, आयुर्वेद, धनुर्वेद और शकुन-शास्त्र का अधिष्ठाता माना गया है।
- ↑ यूनानी सुरा-देवता ।-अनु0।
- ↑ सायुज्य, सालोक्य और सादृश्य या साधर्म्य। भगवान् के स्परूप और कर्म के साथ एक होना साधर्म्य है।
- ↑ किं प्रभाषेत किमासीत् व्रजेत किम?
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