गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ-कर्म मुक्ति और अपूर्ण संसिद्धि के साधन हैं “उस महान् प्राचीन योग के करने वाले जनक और अन्य बड़े-बड़े कर्मयोगी बिना किसी अहंता-ममता के सम और निष्काम कर्म को यज्ञ रूप से करके संसिद्धि को प्राप्त हुए”, उसी प्रकार और उसी निष्कामता के साथ, मुक्ति और संसिद्धि प्राप्त होने के पश्चात् भी हम विशाल भागवत भाव से तथा आध्यात्मिक प्रभुत्व से युक्त शांत प्रकृति से कर्म कर सकते हैं। जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये, श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते हैं; उन्हीं के निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं। हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूँ और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मों का त्याग तो हमें करना ही पड़ेगा। “यदि मैं कर्म-मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूँ तो लोग-वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं-मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां। जो जानते नहीं, वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मों में लगावे।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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