उनका वह पतन क्या है?
देवताओं के भक्त देवताओं को, पितरों के भक्त पितरों को और भूत-प्रेतों के भक्त-भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं; और मेरे भक्त तो मेरे को ही प्राप्त होते हैं।।25।।
जिस भक्ति से आपके भक्त आपको ही प्राप्त होते हैं, वह भक्ति तो बड़ी कठिन होगी?
नहीं भैया! वह तो बड़ी सुगम है। जो भक्त प्रेम से मेरे को पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस मेरे में तल्लीन हुए भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार को मैं स्वयं खा लेता हूँ।।26।।
मुझे क्या करना चाहिये?
हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ तप करता है और इसके सिवाय जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।।27।।
अर्पण करने से क्या होगा भगवन्?
भैया! तू बन्धनकारक सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों के फल से मुक्त होकर मेरे को प्राप्त हो जायगा।।28।।
जो सब कुछ आपके अर्पण कर दे, उसको तो आप बन्धन से मुक्त कर दें और जो सब कुछ आपके अर्पण न करे, वह बन्धन में ही रहे! आपमें इतना पक्षपात क्यों?
यह पक्षपात नहीं है भैया! मैं तो सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। मेरा न तो कोई द्वेषी है और न कोई प्रिय है! परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरे में और मैं उनमें विशेषता से हूँ।।29।।
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