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'''स्त्रिय उरगेंद्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो''' | '''स्त्रिय उरगेंद्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो''' | ||
'''वयमपि ते समाः समदृशोङ्घ्रिसरोजसुधाः ।।'''<ref>श्रीमद्भा. 10.87, 23</ref></poem> | '''वयमपि ते समाः समदृशोङ्घ्रिसरोजसुधाः ।।'''<ref>श्रीमद्भा. 10.87, 23</ref></poem> | ||
− | वेद स्तुति में यह प्रसंग आया कि बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, यती संन्यास, महात्मा प्राणवायु को वश में करके मन को वश में करके, इन्द्रियों को वश में करके, अपने हृदय में जिसका ध्यान करते हैं, द्वेष करने वाले शिशुपाल, दन्तवक्र आदि शत्रु भी उसी परमात्मा को प्राप्त हुए। क्यों हुए? बोले- स्मरणात्; स्मरण तो उनमें भी है भले ही द्वेष से हो। किस कारण से द्वेष करते हैं, यह मतलब नहीं है। एक ने कहा कि लड़ेंगे चलकर, एक ने कहा कि हम प्यार करेंगे चलकर, लेकिन जब सामने गये तो दोनों मिल गये। पनाला गया, गन्दी नाली गयी कि हम समुद्र को गन्दा करेंगे और गंगा गयी कि हम समुद्र को पवित्र करेंगे, लेकिन समुद्र में मिलने के बाद गंदा करने वाली समुद्र हो गयी और पवित्र करने वाली गंगा भी समुद्र हो गयी। एक में पवित्र करने का भाव था एक में गंदा करने का भाव था लेकिन समुद्र में मिलने के बाद दोनों एक हैं- यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेअस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय; उनका नाम रूप टूट जाता है। ये गोपियाँ जो हैं किस कारण से गयीं; बाँसुरी से आकृष्ट होकर गयीं, उनका सौन्दर्य देखकर गयीं, उनका बल-पौरुष देखकर गयीं, प्रेम से आकृष्ट होकर गयीं कैसे भी गयीं, कैसे भी उनका ध्यान लग गया, गयीं तो उन्ही के पास। ध्यान लगा तो उन्हीं का न। तो बाबा जब दुश्मनी करने वाले भी उनसे जाकर मिल जाते हैं, फिर प्रेम से जाकर क्यों नहीं मिलेंगी। | + | वेद स्तुति में यह प्रसंग आया कि बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, यती संन्यास, महात्मा प्राणवायु को वश में करके मन को वश में करके, इन्द्रियों को वश में करके, अपने हृदय में जिसका ध्यान करते हैं, द्वेष करने वाले [[शिशुपाल]], दन्तवक्र आदि शत्रु भी उसी परमात्मा को प्राप्त हुए। क्यों हुए? बोले- स्मरणात्; स्मरण तो उनमें भी है भले ही द्वेष से हो। किस कारण से द्वेष करते हैं, यह मतलब नहीं है। एक ने कहा कि लड़ेंगे चलकर, एक ने कहा कि हम प्यार करेंगे चलकर, लेकिन जब सामने गये तो दोनों मिल गये। पनाला गया, गन्दी नाली गयी कि हम समुद्र को गन्दा करेंगे और गंगा गयी कि हम समुद्र को पवित्र करेंगे, लेकिन समुद्र में मिलने के बाद गंदा करने वाली समुद्र हो गयी और पवित्र करने वाली गंगा भी समुद्र हो गयी। एक में पवित्र करने का भाव था एक में गंदा करने का भाव था लेकिन समुद्र में मिलने के बाद दोनों एक हैं- यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेअस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय; उनका नाम रूप टूट जाता है। ये गोपियाँ जो हैं किस कारण से गयीं; बाँसुरी से आकृष्ट होकर गयीं, उनका सौन्दर्य देखकर गयीं, उनका बल-पौरुष देखकर गयीं, प्रेम से आकृष्ट होकर गयीं कैसे भी गयीं, कैसे भी उनका ध्यान लग गया, गयीं तो उन्ही के पास। ध्यान लगा तो उन्हीं का न। तो बाबा जब दुश्मनी करने वाले भी उनसे जाकर मिल जाते हैं, फिर प्रेम से जाकर क्यों नहीं मिलेंगी। |
− | '''द्विषन्नपि हृषीकेशं-''' हृषीकेश कहने का क्या अभिप्राय है? अरे भाई, द्वेष किया तो उसने बड़ी भारी गल्ती की? बोले न-न ऐसा नहीं समझना, उन्होंने द्वेष करवा लिया- बोले बेटा। तुम हमसे द्वेष करके मिलो। इन्द्रियों के स्वामी तो वे हैं, अपने से द्वेष करने की प्रेरणा दे दी। बोले बहुत बढ़िया नाटक किया है बेटा। अब आ जाओ हम तुसमे प्रसन्न हैं। जब द्वेष करने वालों के लिए भी यह गति, यह मति, यह वात्सल्य, यह स्नेह, फिर जिससे भगवान् प्रेम करें, जो भगवान् को प्यार करें, उनके संबंध में कहना ही क्या। किमुताधोक्षजप्रियाः अधोक्षजः प्रियो यासां, अधोक्षजस्य प्रियाः- गोपियाँ कृष्ण की प्यारी हैं और कृष्ण उनके प्यारे हैं; और प्यार के संबंध से ध्यानमग्र होकर यदि कृष्ण के पास पहुँच गयीं, तो क्या आश्चर्य की बात है। | + | '''द्विषन्नपि हृषीकेशं-''' हृषीकेश कहने का क्या अभिप्राय है? अरे भाई, द्वेष किया तो उसने बड़ी भारी गल्ती की? बोले न-न ऐसा नहीं समझना, उन्होंने द्वेष करवा लिया- बोले बेटा। तुम हमसे द्वेष करके मिलो। इन्द्रियों के स्वामी तो वे हैं, अपने से द्वेष करने की प्रेरणा दे दी। बोले बहुत बढ़िया नाटक किया है बेटा। अब आ जाओ हम तुसमे प्रसन्न हैं। जब द्वेष करने वालों के लिए भी यह गति, यह मति, यह वात्सल्य, यह स्नेह, फिर जिससे भगवान् प्रेम करें, जो भगवान् को प्यार करें, उनके संबंध में कहना ही क्या। '''किमुताधोक्षजप्रियाः अधोक्षजः प्रियो यासां, अधोक्षजस्य प्रियाः'''- [[गोपियाँ]] [[कृष्ण]] की प्यारी हैं और कृष्ण उनके प्यारे हैं; और प्यार के संबंध से ध्यानमग्र होकर यदि कृष्ण के पास पहुँच गयीं, तो क्या आश्चर्य की बात है। |
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[[चित्र:Next.png|right|link=रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 198]] | [[चित्र:Next.png|right|link=रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 198]] |
12:19, 22 अक्टूबर 2017 का अवतरण
विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैनिभृतमरुन्मनोक्षदृढयोगयुजो हृदि वेद स्तुति में यह प्रसंग आया कि बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, यती संन्यास, महात्मा प्राणवायु को वश में करके मन को वश में करके, इन्द्रियों को वश में करके, अपने हृदय में जिसका ध्यान करते हैं, द्वेष करने वाले शिशुपाल, दन्तवक्र आदि शत्रु भी उसी परमात्मा को प्राप्त हुए। क्यों हुए? बोले- स्मरणात्; स्मरण तो उनमें भी है भले ही द्वेष से हो। किस कारण से द्वेष करते हैं, यह मतलब नहीं है। एक ने कहा कि लड़ेंगे चलकर, एक ने कहा कि हम प्यार करेंगे चलकर, लेकिन जब सामने गये तो दोनों मिल गये। पनाला गया, गन्दी नाली गयी कि हम समुद्र को गन्दा करेंगे और गंगा गयी कि हम समुद्र को पवित्र करेंगे, लेकिन समुद्र में मिलने के बाद गंदा करने वाली समुद्र हो गयी और पवित्र करने वाली गंगा भी समुद्र हो गयी। एक में पवित्र करने का भाव था एक में गंदा करने का भाव था लेकिन समुद्र में मिलने के बाद दोनों एक हैं- यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेअस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय; उनका नाम रूप टूट जाता है। ये गोपियाँ जो हैं किस कारण से गयीं; बाँसुरी से आकृष्ट होकर गयीं, उनका सौन्दर्य देखकर गयीं, उनका बल-पौरुष देखकर गयीं, प्रेम से आकृष्ट होकर गयीं कैसे भी गयीं, कैसे भी उनका ध्यान लग गया, गयीं तो उन्ही के पास। ध्यान लगा तो उन्हीं का न। तो बाबा जब दुश्मनी करने वाले भी उनसे जाकर मिल जाते हैं, फिर प्रेम से जाकर क्यों नहीं मिलेंगी। द्विषन्नपि हृषीकेशं- हृषीकेश कहने का क्या अभिप्राय है? अरे भाई, द्वेष किया तो उसने बड़ी भारी गल्ती की? बोले न-न ऐसा नहीं समझना, उन्होंने द्वेष करवा लिया- बोले बेटा। तुम हमसे द्वेष करके मिलो। इन्द्रियों के स्वामी तो वे हैं, अपने से द्वेष करने की प्रेरणा दे दी। बोले बहुत बढ़िया नाटक किया है बेटा। अब आ जाओ हम तुसमे प्रसन्न हैं। जब द्वेष करने वालों के लिए भी यह गति, यह मति, यह वात्सल्य, यह स्नेह, फिर जिससे भगवान् प्रेम करें, जो भगवान् को प्यार करें, उनके संबंध में कहना ही क्या। किमुताधोक्षजप्रियाः अधोक्षजः प्रियो यासां, अधोक्षजस्य प्रियाः- गोपियाँ कृष्ण की प्यारी हैं और कृष्ण उनके प्यारे हैं; और प्यार के संबंध से ध्यानमग्र होकर यदि कृष्ण के पास पहुँच गयीं, तो क्या आश्चर्य की बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10.87, 23
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