विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमतो महाराज! एक ईश्वर वह है जो स्त्री को देखते ही आँख बन्द कर ले- कि हाय-हाय, इसका कोई असर हमारे चित्त पर न पड़ जाय। माया आयी, माया आयी। इसका नाम हो गया भीत ब्रह्म। श्रीउड़ियाबाबा जी महाराज सुनाते थे कि एक बार वे रामघाट में आकर रहने लगे, कुटिया तो थी नहीं, ऐसे गंगा किनारे बालूपर बैठते थे। उस समय उनका यह नियम था कि स्त्री सामने न आवे। तो जहाँ वे ध्यान करने बैठते- आसन उनका बड़ा पक्का था, जिन लोगों ने उनको देखा होगा उनका गला नीचे को झुकता नहीं था, हमेशा सीधे ही रहते थे; चलते हुए, बैठते हुए खाते हुए, बैठते हुए खाते हुए हमेशा, गला झुकता ही नहीं था। तो वे गंगाजी के पुलिन पर जाकर बालू में आसन लगाकर बैठ जाते और वे एक फर्लांग, दो-दो फर्लांग पर चारों तरफ दो-चार लोग बैठते कि कोई स्त्री उधर बाबा के सामने नहीं जाने पाये; वे कहते थे कि महाराज स्त्री का दर्शन नहीं करते हैं। तो एक माताजी थीं वह परमहंस रामकृष्ण की पत्नी शारदामाई जी की शिष्या थीं। हमारा उनका बचपन में बहुत संबंध रहा, उम्र तो उनकी बहुत बड़ी थी, हमको सत्तर वर्ष की उमर में मिली थीं और नब्बे वर्ष तक उनका जीवन रहा। संन्यासी होने के बाद भी हम उनके पास जाते थे और उनको माँ ही मानते थे। बंगाली थीं और तेरह वर्ष की थीं जब उन्होंने परमहंसदेव का दर्शन किया था। वे आयीं तो लोगों ने कहा- उधर मत जाना माताजी, उधर उड़िया महाराज भजन कर रहे हैं, वे स्त्री का दर्शन नहीं करते। बोलीं- अच्छा, स्त्री का दर्शन नहीं करते? तो जाकर उनसे पूछो कि स्त्री के पेट में से निकले हैं कि आसमान में- से टपकर आये हैं? क्यों नहीं दर्शन करते स्त्री का? कमज़ोरी स्त्री में है कि उनके मन में है? किसी ने जाकर उड़ियाबाबाजी महाराज से कहा; तो बाबा बोले- कि बाबा- बुलाकर ले आओ- वह तो हमारी माता है। वह सचमुच बाबा के सिर पर हाथ रख देती थीं, अपने हाथ से खिला देती थीं। बहुत दिनों तक रामघाट में रहीं और बाद में काशी में रहीं; हमलोग उनके पास जा-जाकर उनका दर्शन करते थे, उनसे मिलते-जुलते थे। तो नारायण! ये बाबाजी लोग, वैरागी लोग, चाहते हैं कि जैसे हम रहते हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण को भी रहना चाहिए और जैसे हमारे कमज़ोर मन पर स्त्री का प्रभाव पड़ता है वैसे ही श्रीकृष्ण के मन पर पड़ता होगा। बात तो जरा गंदी है लेकिन कह देना जरा ठीक रहता है, फकीर के लिए क्या गंदी? नाम ही लेकर सुनाता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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