विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 19गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओअब चलें फिर वहीं, नारायण! जैसे नाटक प्रारम्भ हो- बिगुल बजे। रास-लीला प्रारम्भ हो रही है। दिव्य वृन्दावनधाम जो अपने को कभी गुप्त नहीं करता, केवल अभक्त को नहीं दिखता है। अभक्त हृदय में उसको देखने की आँख नहीं है। नहीं तो वृन्दावन धाम अपने को कभी गुप्त नहीं करता, हमेशा प्रकट रहता है। ‘यहीं कहूँ श्याम; काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवे कूँ जिय उमगत है।’ आज भी, इस समय भी है वह तमाल की हरियाली, वह कदम्ब की डाली; आनन्द-वृन्दावन में हमारे बगीचे में एक कदम्ब का वृक्ष है, ऐसी डाल है उसकी कि उसको देखते ही ऐसा मन होता है कि उसमें झूला-डालकर झूलें। पहले झूलते थे, उड़ियाबाबाजी महाराज झूलते थे, भक्त कोकिल सीं झूलते थे। हमने उस डाली का नाम दोला कदम्ब रखा है। ठाकुर जी महाराज उस पर राधा के संग हिंडोला झूलते- ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं।’ सेवाकुंज में जाओ तो बताते हैं ठाकुरजी माखन खाकर हाथ यहाँ पोंछ देते ते, यह कदम्ब चिकना है। हमारे कदम्ब के वृक्ष में से देनें निकलते हैं; बने बनाये दोने, बनाना नहीं पड़ता है। उन पर मक्खन लेकर, दही लेकर ठाकुर जी खाते थे। ये जो ठाकुरजी की लीला है वह पाँच हजार वर्ष पुरानी नहीं है, यह तो आज भी देखने की! ‘यहीं कहूँ श्याम काहू कुंज में फिरत होइहैं, भुज भरि भेंटवै को मन उमगत है’ मन होता है कि दोनों हाथ से पकड़े और हृदय से लगा लें, वह यमुना का तीर, वह बालुकामयं पुलिन, वह कदम्ब कुञ्ज, वह तमाल वृक्षों की पंक्ति, वह मोर-चकोर, वह चाँदनी छिटकी हुई। नारायण! पीताम्बरधारी, मुरली मनोहर, बादल जैसा शरीर जिसको देखकर गौएँ दौड़ती हैं कि यह कोई यमुना जल है, पीलें, इसको देखकर मोर नाचने लगते हैं क्योंकि इसकी वंशी ध्वनि को बादलों की मधुर-मधुर गर्जन समझते हैं। चलो वृन्दावन में चलो-चलो सखी वाम कुंज की ओरः-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29.17-18
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