विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 9रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शनतदोडुराज.............दृष्ट्वा कुमुदवन्तम् अच्छा! अब संसार की ओर से मन को हटाकर, भगवान् की लीला का आनन्द लेने के लिए तत्पर हो जाओ। यह कोई कहानी नहीं; नाटक-सिनेमा नहीं, यहाँ तो मन को अंतरंग देश में, अंतरंग काल में और अंतरंग वस्तु में ले जाना है। देखो- आप यह ध्यान करो कि वृन्दावन है- तो यह बहिर्देश नहीं है, अन्तर्देश है। और यह ध्यान करो कि सायंकाल है और शरदऋतु की पूर्णिमा है। यह काल भी अन्तर देश में है। अब उसमें ध्यान करो- ठुमुक-ठुमुककर पाद-विन्यास करते हुए श्यामसुन्दर मुरलीमनोहर मन्द-मन्द मुस्कराते हुए गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं। यहाँ बहिर्व्यक्ति कहाँ है? सब अन्तर्व्यक्ति हैं। तो आपका मन बहिर्देश को छोड़कर अन्तर्व्यक्ति में प्रवेश कर रहा है। यह रासलीला तो महाराज बाहर की वस्तुओं की वासना को घटाने वाली है। और भीतर जो प्रभु हैं उसके साथ जोड़ने वाली है। यह रासलीला, यह आनन्दलीला, अनजान में ही संसार से वैराग्य कराने वाली है। मनुष्य को पता न चले कि हमारे मन में बाहर से वैराग्य कब हुआ और वैराग्य आ जाय, पता न चले कि भगवान् से प्रेम कब हुआ और प्रेम आ जाए- यह लीला के श्रवण की, लीला के दर्शन की अद्भुत शक्ति है। पर अब कोई भीतर जाना चाहे तब न। तो आप देखो पाँच हजार वर्ष पहले की शरद ऋतु, आश्विन मास की शुक्ला पूर्णिमा, सायंकाल का समय, चंद्रोदय होने वाला है और कदम्बवृक्ष के नीचे खड़े होकर त्रिभंग-ललित बाँकेबिहारी, पीताम्बरधारी, मुरलीमनोहर, मन्दस्मित, गोरोचनांकित मयूरमुकुटी, मकराकृति-कुण्डली, श्यामसुन्दर ने देखा कि आज विहार करने के योग्य है और चंद्रमा संकल्प की पूर्ति के लिए उदय हुआ- तदोडुराज: ककुभ: करैर्मुखं |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा.10.29.2-3
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