विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 42रासलीला का अन्तरंग-1
हमारे काशी में एक पुराने अच्छे वक्ता हैं। एक महाराष्ट्र के विद्वान हैं, उनकी अवस्था अब नब्बे वर्ष से अधिक है। वे बड़े पवित्र मर्मज्ञ वक्ता हैं। तो पहले जब वे कथा प्रारम्भ करते थे, (अब तो कथा नहीं कह सकते) तो बोलते- ‘सर्वे श्रोतार: सावधाना भवंतु’ श्रोताओ सावधान, माने अब डौंड़ी पिट गयी, अब नाटक प्रारम्भ होने वाला है। सावधान का अर्थ है कि एक बार जो दुनिया के साथ अपना रिश्ता है सो सब काट दो, और आओ, अपने मन को लेकर चलें वृन्दावन! आप जानते हैं वृन्दावन प्रीति की, प्रेम की भूमि है। एक बार एक स्त्री एक पोटली में बाँधकर सिर पर रखकर चली जा रही थी। किसी ने पूछा- माँ, इस पोटली में क्या है? तो बोली कि यह संतों का अधरामृत है। बोले- भगवान का तो अधरामृत होता है, यह संतों का अधरामृत क्या है? आप समझें- जहाँ संतों की बैठी थी खाने के लिए,वहाँ जो संतों का खाया हुआ जूठन पड़ा रह गया था, वह बीन-बीनकर उसने पोटली बनायी थी। वह जूठन प्रसादी थी जो वह लिये जा रही थी। उसी को वह कह रही थी संतों का अधरामृत। गोपियों को भगवान का अधरामृत मिलता था और हमको यह प्रसाद मिलता है, जिनके हृदय में भगवान बैठे हैं। नारायण! एक वर्णन मिलता है- एक महात्मा थे-श्रीरामकृष्णादासजी महाराज्। आप लोगों में से बहुतों ने उनका दर्शन किया होगा। बहुत पुरानी बात है- वृन्दावन के बहुत बड़े प्रतिष्ठित सन्त थे। वृन्दावन के प्रेम और वैराग्य दोनों उनके जीवन में एक साथ देखने में आते थे। मैंने भी उनका दर्शन किया था। उनका यह नियम था कि रोज भगवान के तीन लाख नामों का जपना और चार बजे सायंकाल जब जप पूरा हो जाये तब भिक्षा के लिए जाना और किसी व्रजवासी के घर की ही रोटी लेना, दूसरे की नहीं-
व्रजवासियों के सिवाय किसी की रोटी खाते ही नहीं थे। जिंदगी भर वे व्रज से बाहर गये ही नहीं, वृद्ध होकर मरे। एक दिन उनके पास एक संन्यासी आया। वह तो उपनिषद पढ़े हुए था महाराज! बोले- व्रज में ऐसा क्या है कि आप वृन्दावन-वृन्दावन बोलते हो? अब क्या है वृन्दावन में-अब तो वृन्दावन में सूखी रेत है, यमुना जी भी छोड़कर दूर चली गयीं। एक के घर गये और बोले- राधेश्याम-राधेश्याम! जैसे सन्यासी लोग ‘नारायण’ या ‘नारायण हरि’ बोलते हैं। उसमें दो जाति हैं- जो सम्प्रदाय के साथ सम्बंध रखने वाले हैं तो बोलते हैं ‘नारायण हरि’ और जो बिल्कुल अजातवादी होते हैं, वे तो अपने मुँह से ‘नारायण हरि’ भी नहीं बोलते हैं। वे तो एकदम अनन्य होते हैं, अपने मुँह से नारायण नहीं बोलते। वे बोलते हैं- ‘मैया रोटी, भैया रोटी’। जैसे बच्चा बोले ऐसे। एक भगवानदासजी विरक्त थे, वे अपने मुँह से सिवाय दो शब्द के तीसरा शब्द कभी बोलते नहीं थे, दो शब्द बोलते थे- मैया रोटी। चलते-चलते खा लिया, जहाँ मिला वहाँ पानी पी लिया। उनको अजातभिक्षु बोलते थे। तो महात्मा ने बोला- राधेश्याम! घर में से एक माई निकली, बच्चे को गोद में लिये दूध पिला रही थी। बोली- बाबा, घर में रोटी नहीं है। बोले- रोटी नहीं है, तो दूध पी लूँगा। बोली-घर में दूध भी नहीं है; लो, दूध पीना हो तो-झट अपने बच्चे के मुँह से कटोरा हटाया और बोली- लो, पी लो। अब संन्यासी बोले- अरे राम-राम-राम! इतने बड़े महात्मा हैं, तू इनको झूठा दूध देती है? बोली- निगोड़ा कहीं बाहर से आया है क्या? आप जानते ही हैं, निगोड़ा माने व्रज में गाली होती है; जैसे निपोता या निपूता बोलते हैं वैसे निगोड़ा बोलते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत, 10.29. 46-48
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