रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-4यह जो हृदरोग काम है, इस पर विजय का उपाय है कि भगवान की रासलीला का चिन्तन, इसका श्रवण, इसका पाठ किया जाय। रासलीला को ऐसा नहीं समझना कि एक दिन भगवान ने शरद् पूर्णिमा को की होगी या वैशाखी पूर्णिमा को या वासन्ती पूर्णिमा में की होगी। यह जो भगवान की रासलीला है इसमें जो भगवान का पाँव ताल से पड़ता है उस ताल से काल बनता है। और भगवान के पाँव की जो लम्बाई-चौड़ाई, उससे देश बनता है और भगवान के चरणारविन्द से जो पराग के कण छिटकते हैं उनसे ये अनन्तकोटि ब्रह्मण्ड बनते हैं। भगवान के चरणारविन्द के नूपुर की जो ध्वनि है, उससे यह वेदवाणी प्रकट होती है। भगवान के चरणारविन्द की ध्वनि का नाम नूपुर है। उसकी ध्वनि वेद हैं; उनके चरणारविन्द के पराग का नाम अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड है। उनके पाँव के स्थान का नाम देश है। उनके पाँव में जो ताल है, उससे निकलता है काल। इस प्रकार राधाकृष्ण की अनादि अनन्त रासलीला होती रहती है। वह तो हमारे हृदय में प्रेम आवे, भगवान की कृपा होवे, वह कृपा करके अपनी रासलीला में जिसके मन को खींच ले, जिस जीव को खींच ले, आकृष्ट कर ले, वही इसी समय यहीं बैठे-बैठे उस लीला में प्रवेश करके परमानन्द का अनुभव प्राप्त कर सकता है! तो भाई! आप लोग बड़े प्रेम से वर्षा सहकर, घर का काम बिगाड़कर, नीचे बैठकर, बड़ी तकलीफ सहकर, इतने प्रेम से भगवान की चर्चा सुनते हैं, कथा सुनते हैं। वैसे तो यदि हम गृहस्थ ब्राह्मण होते तो चातुर्मासभर यहीं रहते, परंतु अब तो नारायण, चोटी नहीं, जनेऊ नहीं, तो ब्राह्मणता तो पीछे पड़ गयी। अब तो चातुर्मास का नियम तोड़ना भी धर्म है, उसका भी विधान है, उसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है! और फिर हम तो एक बहुत बढ़िया स्थान में, दिव्य देश में (वृन्दावन) जा रहे हैं; वहाँ जाकर विहारीजी का झूला देखेंगे, वहाँ के आनन्द लेंगे, कुछ दिन वहाँ के जलवायु में रहेंगे और फिर वहाँ से और भी रस लेकर, और भी आनन्द लेकर, और प्रेम लेकर, बहुत जल्दी आप लोगों के बीच में फिर आवेंगे; सो अब आज यहीं पूरा करते हैं। हम आप लोगों के प्रति बहुत कृतज्ञ् नहीं है नारायण, और न तो कोई आभार ही मानते हैं; और आप लोग भी कुछ कृतज्ञ मत होओ, आभार मत मानो। क्योंकि सब अपना स्वरूप ही है। और कभी आगे मान लेंगे, अभी फिर कभी मौका मिलेगा तो उसमें कृतज्ञता प्रकट कर लेगें, आभार मान लेंगे। |
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