विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रमएक बार वृन्दावन में सेठ जयदयालजी आये तो वे पहले रास देखना पसंद नहीं करते थे। लेकिन वृन्दावन के लोगों ने बहुत आग्रह किया कि रास में चलो, रास में चलो। बहुत बढ़िया होता है, बड़ा आनन्द आता है, गोलोक उतर आता है। तो वे अपनी मण्डली के साथ- उनके साथ सैकड़ों-पचासों आदमी रहते थे- उसके साथ रासलीला देखने आये। श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज के आश्रम में हमेशा रास होता है तो, रोज-रोज रास होता था, नित्य। मैं समझता हूँ कि पाँच-सात-दस वर्ष तक उड़िया बाबा के आश्रम में निरन्तर रास की परंपरा चलती रही। तो सेठ जी पाचस-सौ आदमियों को लेकर आये, बैठ गये। अब महाराज! रास तो बहुत बढ़िया हुआ। सेठजी को रास में कोई कष्ट नहीं महसूस हुआ, बैठे-बैठे देखते रहे। जब वे लौटकर अपने स्थान पर गये तो उनके परिवार में से दो-तीन सेठ जो बुड्ढे थे उन्होंने आकर जयदयालजी से कहा कि सेठजी! रास देखने में तो हमारी बड़ी हानि हुई। बोले-क्या हुआ? बोले-बाबा, हम तो स्खलित हो गये। अब बताओ, आपको हम सुनाते हैं कि यह पाप है, भला; यह तो मानसिक अपराध है, लेकिन हम यह पूछते हैं कि दोष उस रास का है कि उन व्यक्तियों का है? यह तो उनके मन की कमज़ोरी है न! अब सेठ जी ने कहा कि- भाई मामूली आदमी को रास नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो पतन की शंका है। कह दिया उन्होंने, निर्णय दे दिया उन्होंने। पर यह व्यक्ति का दोष हुआ ना! करपात्री जी महाराज तीन-तीन घण्टे रास में बैठे हैं और उनकी आँख से झर-झर आँसू बहते रहे और फिर बाद में उठकर किसी से मिलते नहीं, जंगल में चले जाते और जाकर घण्टों के बाद जब चित्त स्वस्थ होता तब लौटकर कुटिया पर आते। ऐसे पाँच सौ आदमी रास देख रहे हों, पर उसमें दो सौ-तीन सौ आदमियों के आँख पर झर-झर आँसू गिरता रहता है। मिलन के प्रसंग में भी आँसू गिरता रहता है और वियोग के प्रसंग में भी आँसू गिरता है। लोग जब यह बात सोचते हैं कि ये श्रीकृष्ण कैसे भगवान्, कैसे निर्विकार, तो भाई, वे जानते नहीं कि निर्विकारता कैसी होती है। यह श्रीकृष्ण का वर्णन है, भला! जिसके चित्त में विकार है उसको हिमालय की गुफा में रहने पर भी स्वप्न-दोष होता है, उसके मन में विकार आता है; और जिसका मन निर्विकार है वह सड़क के चौराहे पर बैठा रहता है और उसके मन में कभी विकार नहीं आता है। ये श्रीकृष्ण जो हैं- ये कोई मनुष्य नहीं है, साक्षात् भगवान् हैं, और अच्युत हैं, निर्विकार हैं, गोपियों के साथ नाचते गाते हुए भी। उदारहासद्विजकुन्ददीधितिः। उदारहास- कई लोग मुस्कराते भी हैं और झेंपते भी हैं; परंतु श्रीकृष्ण की मुद्रा में ‘उदारहास’ का अर्थ है कि हास में उदारता है, उदीर्ण है, हँसते हैं तो उनके दाँत भी दिखते हैं, हँसने की आवाज भी होती है। इसके कई भेद हैं। एक स्मित होता है- कपोल लाल हो जाय, नाक भी लाल हो जाय, होंठ भी थोड़े खिल जायँ, लेकिन दाँत न दिखे। थोड़े दाँत दिख जायँ, थोड़ी आवाज आ जाय, यह हसित। विहसित प्रहसित, अतिहसित अट्ठहास, हँसी के बहुत सारे भेद होते हैं। इनका वर्णन श्रीमद्भावगत में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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