योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सत्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका
उसने आगे कहा, जिसने छल से राजा जरासंध का वध किया, बड़े दुख की बात है कि उसे अर्ध्य देकर भीष्म ने पक्षपातपूर्ण अधर्म का काम किया है और सबसे अधिक दुख इस बात का है कि युधिष्ठिर ने धर्म का अवतार होकर भी इस निर्णय को मान लिया। पुनः धिक्कार है कृष्ण पर जिसने इस अधम व्यवस्था को स्वीकार किया। इसके पश्चात महाभारत में लिखा है कि वह अपने साथियों सहित सभा से उठकर चल दिया। युधिष्ठिर उसके पीछे गया और मनाने लगा। उसने कहा, "शिशुपाल! देखो, जितने विद्वान और योद्धागण यहाँ बैठे हैं, वे सब इस बात को मानते हैं कि कृष्ण ही सम्मान के उपयुक्त हैं। फिर तू क्यों ऐसे कठोर वचन बोलता है?" भीष्म ने भी अपने उत्तर में कहा कि शिशुपाल धर्म-मार्ग को नहीं जानता। क्षत्रियों की यह मर्यादा है कि जो शत्रु पर जय पाकर भी उसे छोड़ दें वह उसका गुरु हो जाता है। कृष्ण न केवल महाबली क्षत्रिय है जिन्होंने हजारों क्षत्रियों को स्वतंत्रता प्रदान की है, वरन् वे वेदों के ज्ञाता और विद्वान हैं और इसलिए इन दोनों गुणों से संयुक्त होने से हम सबमें से वे ही गौरवान्वित होने के योग्य है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा। नृणांलोके हि को ऽन्यो ऽस्ति विशिष्ट केशवाट्टते।।
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