योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 126

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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बत्तीसवाँ अध्याय
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक


युद्ध के समाप्त होते ही पाण्डवों ने कृष्ण को हस्तिनापुर के लिए विदा किया ताकि वे वहाँ जाकर युद्ध की पूरी स्थिति से धृतराष्ट्र को सूचित करें। यह कठिन कार्य किसी साधारण पुरुष के वश का नहीं था। कृष्ण हस्तिनापुर पहुँचे। धृतराष्ट्र और उसकी धर्मपत्नी गान्धारी दुःख में रोते-कलपते थे। कृष्ण ने इधर-उधर की बातें कर उनको ठंडा किया और संतोष दिलाया। अब गान्धारी ने अपने मृत पुत्रों के दर्शन की अभिलाषा प्रकट की और राजा धृतराष्ट्र रानियों के सहित रणभूमि की ओर चले। वहाँ पहुँचकर जो दृश्य इन रानियों ने देखा, वह असह्य था। रानियाँ देखती थीं और रोती थीं। उनके प्रिय पतियों के शव रक्त में लिपटे एक-दूसरे के ऊपर पड़े हुए थे। बहुतों को तो जानवरों ने पहचानने के योग्य ही नहीं रखा था, परन्तु बहुतों को अभी पहचाना जा सकता था। अपने-अपने सम्बन्धियों को देखकर स्त्रियाँ रोती थीं। गान्धारी अपने बेटों को देखकर रोती थी और कुन्ती अपने पोतों को देखकर रोती थी। सारे वंश में कोई स्त्री ऐसी नहीं थी जिसके लिए इस युद्ध में सिर पीटने और चिल्लाने के लिए साम्रगी न हो।

गान्धारी के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वह बड़ी समझ वाली, बुद्धिमती और धर्मात्मा स्त्री थी। इसके संबंध में जो उल्लेख महाभारत में हैं उनसे इसे धैर्य, बुद्धिमत्ता और गम्भीरता के पूरे प्रमाण मिलते हैं, परन्तु कौन माता है जो अपने समस्त वंश को इस तरह अपने ही नेत्रों के सामने खून में लिपटा हुआ देखकर अपने धैर्य को स्थिर रख सके। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि कुरुक्षेत्र की भूमि में अपने पुत्रों के मृतक शरीरों को देखकर उसने कृष्ण को शाप दिया और उनको इस बरबादी और रक्तपात का जिम्मेदार ठहराया। अन्त में कृष्ण के द्वारा चाचा और भतीजों में मिलाप हो गया। भतीजों ने बड़ी नम्रता से चाचा और चाची के चरणों पर सिर रख दिये। युधिष्ठिर पर तो इतना दुख छाया हुआ था कि उसने राज्य करने से इन्कार कर दिया। उसके भाई समझाते थे परन्तु वह नहीं मानता था। यहाँ तक कि स्वयं धृतराष्ट्र और गान्धारी ने भी युधिष्ठिर को बहुत कुछ समझाया, परन्तु उसने अपने मन्तव्य पर दृढ़ता प्रकट की और यही कहते रहे कि भाई-बंधुओं और बड़ों के रक्त में हाथ रँगकर अब राज्य करने में मुझे क्या सुख हो सकता है! मेरे लिए तो अब यही शेष है कि तप करके अपने पापों का प्रायश्चित्त करूँ और अवशिष्ट जीवन परमात्मा की याद में अर्पण करके अपनी आत्मा को दुख व क्लेश से बचाऊँ। अन्त में जब सब कह चुके और कुछ भी असर नहीं हुआ तो फिर कृष्ण ने उन्हें कुछ व्यंग्य-वचन सुनाये। कभी नर्मी और कभी गर्मी से काम लेते हुए उन्होंने अंत में क्षात्र-धर्म के नाम पर युधिष्ठिर से अपील की और उसको वश में कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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