योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 111

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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छब्बीसवाँ अध्याय
कृष्ण-कर्ण संवाद


जब कृष्ण अपने कार्य में सफलीभूत नहीं हुए तो उन्होंने चलते-चलते एक और युक्ति लगाई जिससे कर्ण और दुर्योधन में विरोध हो जाय और कर्ण उसका पक्ष छोड़कर पाण्डवों का साथ दे।

कर्ण के विषय में कहा जाता है कि वह पाण्डवों का सौतेला भाई[1] है, पर यह विवाह से पहले उत्पन्न हुआ था इसलिए कुन्ती ने भी उसे अपना पुत्र स्वीकार नहीं किया था। पाठकों को याद होगा कि बाल्यावस्था में पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों की परीक्षा ली गई थी तो कर्ण को अर्जुन का प्रतिपक्षी बनने की आज्ञा नहीं दी गई थी क्योंकि वह हीन कुलोत्पन्न था।[2] उसी दिन से उसने प्रण किया था कि किसी तरह अर्जुन को परास्त कर इस अपमान का बदला लूँगा। इसी अभिप्राय से उसने दुर्योधन से मित्रता पैदा की और उसको अपना सहायक बना दिया।

दुर्योधन की सेना में कर्ण और भीष्म अर्जुन के बराबर के योद्धा गिने जाते थे। दुर्योधन को विश्वास था कि इन दोनों के सामने अकेले अर्जुन की कुछ न चलेगी। इससे उसको इतना अभिमान था कि वह इस सन्धि को अस्वीकार करता था। कृष्णचन्द्र यद्यपि अन्तःकरण से चाहते थे, कि लड़ाई न हो, पर पाण्डवों को उनका स्वत्व न मिले और सन्धि को जाय इस बात को भी वे पसन्द नहीं करते थे। वह तो इसे पाप समझते थे। इसलिए हस्तिनापुर से विदा होने के पहले उन्होंने यह युक्ति लगाई कि कर्ण को उसके जन्म का यथार्थ परिचय देकर दुर्योधन की सहायता करने से रोकें। कृष्ण ने कर्ण को बहुत कुछ समझाया और पाण्डवों की ओर से यहाँ तक कहा कि उम्र में सब भाइयों से बड़े होने के कारण गद्दी के अधिकारी आप ही हैं। इस पर भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ छोड़ना स्वीकार नहीं किया और उत्तर दिया कि मैं दुर्योधन से उसका साथ देने का दृढ़ संकल्प कर चुका हूँ। अब यदि चक्रवर्ती राज्य भी मिले तो मैं उसका साथ नहीं छोड़ सकता। मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि या तो अर्जुन को युद्धक्षेत्र में नीचा दिखाकर यश और कीर्ति का लाभ प्राप्त करूँ और संसार में महावीर कहलाऊँ अथवा उसके हाथ से मारा जाकर स्वर्ग को सिधारूँ। कृष्णचन्द्र की चतुरता का यह अन्तिम वार भी ख़ाली गया। अब इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय बाकी न रहा कि अपनी-अपनी सेना सजाई जाए और युद्ध की तैयारियाँ की जायें। जब कृष्ण हस्तिनापुर से लौटे तो युधिष्ठिर ने अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया और कुरुक्षेत्र के मैदान में आ पहुँचा। अब लड़ाई की तैयारियाँ होने लगीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्ण कुन्ती का कानीन (कन्यावस्था में उत्पन्न) पुत्र था।
  2. कर्ण का पालन एक सारथी (अधिरथ) ने किया था।

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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