योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 118

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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उन्तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व


भीष्म विजय के अगले दिन दुर्योधन ने अपनी सेना का सेनापतित्व आचार्य द्रोण को सौंपा। यद्यपि द्रोण ब्राह्मण थे तथापि युद्धविद्या और शस्त्रविद्या में वे अपने समय के आचार्य तथा बड़े निपुण थे। युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, दुर्योधन इत्यादि सब इनके शिष्य थे जिनमें अर्जुन सबसे योग्य था। युद्ध के कुछ तरीके तो ऐसे थे जो उन्होंने केवल अर्जुन को ही सिखाये थे, अन्य किसी को नहीं।

द्रोण के सेनापतित्व में युद्ध बड़े वेग से आरम्भ हुआ और अधिक मारकाट होती रही। एक दिन अर्जुन लड़ाई का मैदान छोड़कर युद्धक्षेत्र के एक किनारे पर कौरव सेना के उस भाग से युद्ध कर रहा था जो द्रोण ने दुर्योधन के आधिपत्य में भेजा था। पीछे से द्रोण ने पाण्डवों पर ऐसे दाव-पेंच चलाये जिससे वे घबरा गये। उसने पाण्डवों के एक बड़े समूह को ऐसे व्यूह में घेर लिया जिससे उनका बचना कठिन हो गया। पाण्डवों की सेना में अर्जुन के अतिरिक्त और कोई इस व्यूह की लड़ाई को नहीं जानता था। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु, जो केवल सोलह वर्ष का युवक था, किंचित इस व्यूह को जानता था। अतः वह वीरतापूवर्क रणक्षेत्र में आया और अपनी वीरता के करतब दिखलाने लगा। सोलह वर्ष के इस युवक ने कौरव सेनापतियों व सरदारों को इतना कष्ट दिया जिससे उन्हें इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझा कि सात चुने हुए महारथी[1] एकत्र होकर उस पर आक्रमण करें। अभिमन्यु अभी बालक ही था। उसमें इतनी सामर्थ्य कहाँ थी कि इन सात योद्धाओं का सफलता से सामना करता। बेचारा युद्ध करता हुआ रण में गिर गया और गिरते ही किसी ने उसका सिर काट लिया। अभिमन्यु का वध होना था कि पाण्डवों के दल में रोना-पीटना आरम्भ हो गया।

अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था और सारे पाण्डवों को उससे अधिक प्रेम था। सारी सेना उसकी सुन्दरता, वीरता, युद्ध-कौशल तथा बाणविद्या पर मोहित थी। सायंकाल जब लड़ाई बंद हुई, कृष्ण और अर्जुन भी लड़ते-लड़ते शिविर में आये तो सारी सेना को उन्होंने रोते-पीटते देखा। अर्जुन की आँखों के सामने तो अन्धकार छा गया। युधिष्ठिर अलग बेसुध थे। अंत में कृष्ण ने अपनी चतुर नीति से सबको धैर्य दिया और अर्जुन को समझाया। उन्होंने कहा, "अभिमन्यु तो युद्ध करता हुआ सीधा स्वर्गधाम को सिधारा। तुम क्षत्रिय पुत्र की मृत्यु पर रुदन कर क्यों अपना परलोक बिगाड़ते हो? क्षत्रियों के लिए तो ऐसी मृत्यु सौभाग्य है।" इसी प्रकार उसने अपनी बहन सुभद्रा और दूसरे सैनिकों को भी संतोष देकर शांत किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिनमें द्रोण स्वयं भी सम्मिलित था।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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