योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व
द्रोण के सेनापतित्व में युद्ध बड़े वेग से आरम्भ हुआ और अधिक मारकाट होती रही। एक दिन अर्जुन लड़ाई का मैदान छोड़कर युद्धक्षेत्र के एक किनारे पर कौरव सेना के उस भाग से युद्ध कर रहा था जो द्रोण ने दुर्योधन के आधिपत्य में भेजा था। पीछे से द्रोण ने पाण्डवों पर ऐसे दाव-पेंच चलाये जिससे वे घबरा गये। उसने पाण्डवों के एक बड़े समूह को ऐसे व्यूह में घेर लिया जिससे उनका बचना कठिन हो गया। पाण्डवों की सेना में अर्जुन के अतिरिक्त और कोई इस व्यूह की लड़ाई को नहीं जानता था। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु, जो केवल सोलह वर्ष का युवक था, किंचित इस व्यूह को जानता था। अतः वह वीरतापूवर्क रणक्षेत्र में आया और अपनी वीरता के करतब दिखलाने लगा। सोलह वर्ष के इस युवक ने कौरव सेनापतियों व सरदारों को इतना कष्ट दिया जिससे उन्हें इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझा कि सात चुने हुए महारथी[1] एकत्र होकर उस पर आक्रमण करें। अभिमन्यु अभी बालक ही था। उसमें इतनी सामर्थ्य कहाँ थी कि इन सात योद्धाओं का सफलता से सामना करता। बेचारा युद्ध करता हुआ रण में गिर गया और गिरते ही किसी ने उसका सिर काट लिया। अभिमन्यु का वध होना था कि पाण्डवों के दल में रोना-पीटना आरम्भ हो गया। अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र था और सारे पाण्डवों को उससे अधिक प्रेम था। सारी सेना उसकी सुन्दरता, वीरता, युद्ध-कौशल तथा बाणविद्या पर मोहित थी। सायंकाल जब लड़ाई बंद हुई, कृष्ण और अर्जुन भी लड़ते-लड़ते शिविर में आये तो सारी सेना को उन्होंने रोते-पीटते देखा। अर्जुन की आँखों के सामने तो अन्धकार छा गया। युधिष्ठिर अलग बेसुध थे। अंत में कृष्ण ने अपनी चतुर नीति से सबको धैर्य दिया और अर्जुन को समझाया। उन्होंने कहा, "अभिमन्यु तो युद्ध करता हुआ सीधा स्वर्गधाम को सिधारा। तुम क्षत्रिय पुत्र की मृत्यु पर रुदन कर क्यों अपना परलोक बिगाड़ते हो? क्षत्रियों के लिए तो ऐसी मृत्यु सौभाग्य है।" इसी प्रकार उसने अपनी बहन सुभद्रा और दूसरे सैनिकों को भी संतोष देकर शांत किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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