योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध
द्रोण के मरने पर दुर्योधन ने कर्ण को अपनी सेना का सेनापति बनाया। कर्ण ने भी युद्ध में इस प्रकार हाथ दिखलाये जिससे देवता भी उसकी वीरता का सिक्का मान गए। कई अवसरों पर तो उसने युधिष्ठिर को युद्ध में नीचा दिखाया और पाण्डव सेना को बहुत हानि पहुँचाई। श्रीकृष्ण ने यह चाल चली की प्रथम तो अर्जुन को इसके सामने युद्ध में आने से रोकता रहा। जब कर्ण पाण्डव सेना के विख्यात योद्धाओं से लड़ता-लड़ता थक गया और पाण्डव दल में कोई अन्य वीर उसके सामने लड़ने वाला न रहा तो कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण के सामने कर दिया। कर्ण और अर्जुन का युद्ध क्या था मानो भूचाल था। दोनों वीरों ने तीरों की बौछार से युद्धस्थल को धुआँधार कर दिया और शस्त्रविद्या के ऐसे कौशल दिखलाये जिससे पाँच हजार वर्ष के बीतने पर भी अभी तक अर्जुन और कर्ण का नाम सर्वसाधारण के सामने है। इस युद्ध में कृष्ण पर भी बाणों और शस्त्रों की बहुत मार रही, परन्तु वह अपने समय का एक ही पुरुष था जो खूब होशियारी से अपने आपको बचाता रहा और अर्जुन को लड़ाई के लिए उत्तम से उत्तम स्थान पर ले जाकर खड़ा करता रहा। एक समय कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया। कर्ण स्वयं पहिये को निकालने के लिए रथ से नीचे उतरा और युद्ध-धर्म के नाम पर अर्जुन से अपील की कि जब तक मैं फिर रथ पर न बैठ जाऊँ, युद्ध रुका रहे। उस समय कृष्ण ने यद्यपि संकेत से अर्जुन को तो रोक दिया परन्तु बड़े जोर से कर्ण को इस बात पर धिक्कारा कि अब अपनी जान बचाने के लिए उसे धर्म याद आ गया। उस दिन धर्म को कहाँ भूल गया था जब तेरी उपस्थिति में द्रौपदी को राजसभा में बेइज्जत किया गया था, जब तुम सात आदमियों ने इकट्ठे होकर बेचारे अभिमन्यु को मारा था, जब तेरी सम्मति से दुर्योधन ने पाण्डवों के महल को आग लगा दी थी आदि। कर्ण इस धिक्कार का तो क्या जवाब देता। रथ का पहिया निकालकर फिर लड़ने लगा और अंत में अर्जुन के हाथ से मारा गया। कर्ण के मरते ही कौरव सेना ने भागना आरम्भ किया और दुर्योधन के शिविर में दुःख और शोक छा गया। हाँ! लालच और क्रोध ने दुर्योधन की आँखों पर ऐसा पर्दा डाल किया था कि इतनी मारकाट पर भी उसका चित्त नहीं पिघला और अब भी उसके दिल में राज्य की अभिलाषा गई नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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