योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व
सम्भवतः इस कहावत का एक और अभिप्राय भी है अर्थात लड़ाई में धोखा, दगाबाजी, झूठ का व्यवहार उचित ठहराया जाता है। तथापि स्पष्ट प्रतीत होता है कि जिस समय यह कहानी बढ़ाई गई उस समय भी आर्यपुरुषों में सत्य का इतना मान था, सर्वसाधारण को झूठ व धोखे से इतनी घृणा थी कि इस कहानी के बनाने वाले महाशय को यह भी लिखना पड़ा कि युधिष्ठिर ने जब यह असत्य कहा तो इससे उसका रथ, जो सत्यता के कारण पृथ्वी से कुछ ऊँचाई पर चला करता था, वह पृथ्वी के संग लग गया। युधिष्ठिर के लिए यह प्रसिद्ध है कि इससे पहले उसने कभी झूठ नहीं बोला था और उसकी सत्यता का प्रताप ऐसा था कि जिस रथ पर वह बैठता था वह रथ पृथ्वी से कई हाथ ऊपर हवा में चला करता था। परन्तु जब वह झूठ बोला तो तुरन्त उसका रथ पृथ्वी पर गिर पड़ा और अन्य साधारण मनुष्यों में तथा उसमें कोई भेद न रहा। उपर्युक्त लेख से यह प्रकट है कि द्रोण अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनने पर भी युद्ध करता रहा। हम उन ग्रन्थकर्ताओं से सहमत हैं जिनकी सम्मति में यह कहानी पीछे की मिलावट और मूल घटना के विरुद्ध प्रतीत होती है। द्रोण के देहान्त के बाद का भाग सब का सब गप मालूम होता है। कवि को अपनी बात निभाने के लिए पाण्डव शिविर में झगड़ा करवाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। अर्जुन इत्यादि की इस धोखेबाजी पर युधिष्ठिर को धिक्कार और भीम तथा धृष्टद्युम्न द्वारा उनकी सहायता आदि सारे उल्लेख प्रक्षिप्त हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज