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तेईसवाँ अध्याय
कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन
कृष्ण, धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणादि से भेंट करके विदुर के स्थान पर ठहरे। युधिष्ठिर की माता कुन्ती भी विदुर के साथ रहती थी। जब कृष्ण उसके घर पहुँचे तो उसने बड़े प्रेम से उन्हें गले लगाया और आदर-सत्कार से पास बिठाकर रोने लगी। किसकी लेखनी में शक्ति है जो माता के प्रेम का वर्णन लिख सके! किसमें बल है जो अपने पुत्रों के लिए झेले गये माता के दुख को लेख द्वारा प्रकट कर सके! कृष्ण और कुन्ती के मिलाप का पूर्ण वर्णन पाठकों के सामने उपस्थित करना हमारी लेखनी से बाहर है। याद रखना चाहिए कि कुन्ती कृष्ण की फूफी[1] थी। 14 वर्ष से कुन्ती ने अपने प्यारे पुत्रों का मुख नहीं देखा था। 14 वर्ष हुए जब युधिष्ठिर की कमज़ोरी से अपने राजपाट से अलग कर उन्हें देश से निकाल दिया गया था। 14 वर्ष हुए जब पाण्डवों ने अपनी बिलखती माता को महलों में छोड़ा था। 14 वर्ष से बेचारी माता अपने प्यारे बच्चों की बाट जोह रही थी और मन मारे बैठी थी। कृष्ण के मिलने से माता की सारी आशाएँ लहलहा उठीं और साथ ही कृष्ण के आगमन ने मानों उसके घाव को ताजा बना दिया। कृष्ण की छवि में उसने अपने प्यारे पुत्रों की छाया देख ली। कुन्ती ने कृष्ण पर प्रश्नों की बौछार आरम्भ कर दी। एक-एक करके प्रश्न पूछती जाती थी और साथ ही आँखों से आँसुओं की धारा जारी थी। वह मुख से विलाप कर रही थी और कभी अपने वैधव्य पर रोती थी, कभी अपने पुत्रों की बाल्यावस्था को रो-रोकर याद करने लगती थी। युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा, भीम की वीरता और अर्जुन की धनुर्विद्या में कुशलता, ये सब इस समय उसके नेत्रों के सम्मुख घूम रहे थे। वह हैरान थी कि इन 14 वर्षों की क्या-क्या बातें पूछे।
सारांश यह कि वह अपने दुख की रामकहानी सुना रही थी और दूसरे को बोलने का अवकाश भी नहीं दे रही थी। कृष्ण भी चित्रवत खड़े सुन रहे थे। निदान कुन्ती ने अपना विलाप कुछ कम किया और फिर अपने पुत्रों का कुशल-मंगल पूछने लगी। कृष्ण के मुख से उनका हाल सुनकर उसके कलेजे में फिर चोट-सी लगी और वह रोने तथा विलाप करने लगी। अन्ततः जब भीतर का उबाल अच्छी तरह से निकल चुका तो कृष्ण से कहने लगी, "हे कृष्णǃ मेरी ओर से तो तेरे सब पुत्र मर गये और उनकी ओर से मैं मर चुकी। युधिष्ठिर को आप यह संदेश दीजिए कि तेरा यश दिन-ब-दिन बढ़े। तू सदा भलाई ही करता रहे‚ जिससे तेरी धार्मिक मर्यादा की वृद्धि होती जाये। हे जनार्दनǃ आप उनसे जाकर कहें‚ धिक्कार है उन लोगों पर जो दूसरों के सहारे जीते हैं या दूसरों से डरते हैं। ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा है।"
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