योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
चौंतीसवां अध्याय
क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे?
क्या परमेश्वर मनुष्य-शरीर धारण करता है?
क्या ईश्वर का अवतार मानने वाले हमको यह बतला सकते हैं कि जिस समय श्रीकृष्ण महाराज के शरीर में परमात्मा ने अवतार लिया था उस समय सारे संसार का शासन कौन करता था? जब श्रीकृष्ण कौरवों से लड़ते थे, शिशुपाल से झगड़ते थे, जरासंध के भय से भागते फिरते थे उस समय संसार का प्रबंध किसके हाथ में था और किस तरह चल रहा था? तात्पर्य यह है कि बुद्धि इस बात को कदापि स्वीकार नहीं कर सकती कि इस सृष्टि का स्वामी और बनाने वाला परमात्मा कभी नर-देह में आता है। उसका तो यही गुण है कि वह संसार के सारे प्रपंचों से परे है। यह शरीर तो उसके बनाये हुए हैं। मनुष्य जिसके कार्य-कौशल को स्वयं नहीं समझ सकता, उसके विषय में कह देता है कि वह परमेश्वर ही इस बलहीन और बंधन-युक्त मनुष्य-देह में आता है। ताकि वह हमें अपने उदाहरणों से बतला सके कि किस प्रकार से जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस परमात्मा के विषय में ऐसा सोचना वास्तव में उसके ईश्वरत्व को अस्वीकार करना है। मनुष्य को ईश्वर का पद देना या ईश्वर को गिराकर मनुष्य के पद पर पहुँचा देना बड़ा भारी अपराध है। हमें खेद है कि हमारी जाति के लोग इस बुनियाद पर इतना भरोसा रखते हैं और अवतारों को माने बिना धर्म-शिक्षा का होना भी विचार में नहीं ला सकते। यद्यपि यह विषय बहुत आवश्यक और मनोरंजक भी है, इस पर वादानुवाद करने को भी जी चाहता है, परन्तु लेख के बढ़ जाने का विचार हमें रोकता है। दूसरे इस विषय पर वादानुवाद करना इस पुस्तक के उद्देश्यों से भी बाहर है। अस्तु, केवल इतना कहकर हम संतोष करते हैं कि वेदों और उपनिषदों में परमात्मा को अज[1], अमर, अविनाशी और अकाय इत्यादि कहा है। यदि हम यह मान लें कि परमात्मा स्वयं भी देह धारण करता है तो उपुर्यक्त सभी गुण व्यर्थ हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अजन्मा
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