योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व
दूसरे दिन जब युद्ध आरम्भ हुआ तो दुर्योधन ने अपनी सेना को इस तरह से जमाया जिससे जयद्रथ परले किनारे पर खड़ा रहा और सारी तैयारी उसके बचाव के लिए की गई क्योंकि कौरवों के लिए जयद्रथ का सायंकाल तक जीवित रहना जय प्राप्त करने के समान था। पाण्डवों की सेना में से यदि अर्जुन निकल जाता तो फिर दुर्योधन के जीतने में क्या शंका थी। अगले दिन कृष्ण ने सारथी-कला के ऐसे गुण दिखाये और युद्ध के बीचोबीच व्यूह को चीरकर इस रीति से अर्जुन को जयद्रथ के सामने लाकर खड़ा किया जिससे जयद्रथ के लिए लड़ने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रहा। ऐसा क्यों न होता जबकि अर्जुन जैसे महाबली योद्धा और कृष्ण जैसे सारथी हों। कृष्ण तो सारथी-विद्या का कौशल दिखा सकते थे परन्तु उनकी कला किस काम आती यदि अर्जुन उपस्थित वीरों से अपने आपको न बचाता, क्योंकि सारे रास्ते भयंकर युद्ध होता रहा। कौरव सेना के सब बड़े-बड़े योद्धा बारी-बारी लड़ते। कभी भिन्न-भिन्न और कभी कई लोग एकत्र होकर अर्जुन से युद्ध करते रहे, परन्तु वीर अर्जुन सबसे युद्ध करता हुआ किसी को मारता, किसी से बचता, किसी को अपनी सेना के दूसरे योद्धाओं को सौंपता, अपनी जान को हथेली पर लिए बाण वर्षा, निशानेबाजी और युद्ध के करतब दिखलाता हुआ जयद्रथ के सामने जा पहुँचा और उसको युद्ध करने पर बाध्य किया। युद्ध में उसका सिर काटकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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