योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तीसरा अध्याय
श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म
क्या किसी लेखनी में शक्ति है कि उस पिता के अतिरिक्त संताप का चित्र खींच सके जिसके सम्मुख अपने ही बालकों का सिर काटा जाय! कौन पिता है जो ऐसी दशा में उनके प्राण की रक्षा की एक चेष्टा न करेगा! बच्चों की स्वाभाविक मृत्यु माता-पिता के जीवन को कष्टप्रद बना देती है। बहुतेरे ऐसे हैं जो अपने बच्चे की अकाल मृत्यु के संताप में पिघल-पिघलकर जान गँवा देते हैं, या जीवन-भर शोकसागर में पड़े रहते हैं। पर यहाँ तो एक-दो की कौन कहे, छः पुत्रों का उसके सामने वध हुआ। वसुदेव जी इस संताप से महादुःखी हो गए। इसको सहन करने की शक्ति समाप्त हो गई और उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली कि जैसे भी होगा अब इस दुष्ट के हाथ से अपने बच्चों को बचाऊँगा। इस सावतें गर्भ की रक्षा के विषय में पुराण में लिखा है कि देवताओं ने देवकी के गर्भ से बच्चा निकाल रोहिणी के गर्भ में डाल दिया[2] और यह बात प्रकट की गई कि देवकी का गर्भ नष्ट हो गया। इस कथन से दो परिणाम निकाल सकते हैं-
देवकी सातवीं बार गर्भवती हुई। इस पर तो पहले पहरा बैठता था, पर इस बारी पूरी रखवाली करने की आज्ञा हुई। एक सुरक्षित स्थान में बन्द कर उन पर पहरा-चौकी बैठा दिया गया और ऐसा प्रबन्ध किया गया जिसमें किसी प्रकार से भी वह अपने बालक को न बचा सके। ऐसा मालूम होता है कि इस बालक के वध के लिए कंस की ओर से जैसा उत्तम प्रबन्ध किया गया था वैसा ही दूसरे पक्ष वाले इसके बचाने में सन्नद्ध थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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