गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12“दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापक्षुताशुभाः। अर्थात विप्रयोग-जन्य दुस्सह तीव्र-ताप से प्रेरित भगवान अच्युत के मानसी आश्लेष से प्रादुर्भूत आनन्द-सिन्धु के अद्भुत उद्रेक से अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के अनन्तानन्तप्राणियों के सम्मिलित पुण्य-पुज्ज भी प्रकम्पित हो जाते हैं, इस सम्मिलित पुण्य-पुज्ज से प्राप्त होने वाला अनन्त सुख भी भगवान अच्युत के मानसी आश्लेषजन्य आनन्द-सिन्धु का विन्दुमात्र है। “या निवृंतिस्तनुभृतां तव पादपद्म- अर्थात, हे नाथ! आपके चरण पंकज के ध्यान से भक्तों को जो आनन्द मिलता है वह तो साक्षात ब्रह्म-पद में भी नहीं मिल पाता। ‘ध्रुवजी की यह उक्ति सापेक्ष है, इसका तात्पर्य है- ‘अव्यक्ताहि गतिर्दुःख देहवद्भिरवाप्यते’[3] अर्थात, देहाभिमान शून्य ही ब्रह्म-सम्मिलन का अनन्त आनन्द अनुभव कर सकता है; जो देहाभिमान, देहाध्ग्रास शून्य नहीं हुआ वह उस आनन्दानुभूति से रिक्त ही रह जाता है। यथार्थ में ब्रह्मस्वरूप होते हुए भी जीव शूकर-कूकर-कीट-पतंग-पशु-पक्षी-देवता-दानव आदि विभिन्न योनियों में, अनेकानर्थ-परिप्लुत भवाटवी में भटकता हुआ ब्रह्मानन्द से अपरिचित एवं संसार-ताप से संत्रस्त ही रहता है। अस्तु भक्त ध्रुव कहते हैं- हे नाथ, आपके चरणारविन्द के ध्यान तथा आपके भक्तों की कथाश्रवण से भी जो आनन्द प्राप्त होता है वह स्वप्रकाश में भी नहीं है। काल की तलवार की तीक्ष्ण धार से छिन्न-भिन्न हो विमानों से नीचे गिरने वाले देवता तो उस मुख का अनुभव ही कैसे कर सकते हैं? |