गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12स्मार्त्त मतानुसार इसका अन्वय ‘कृच्छचान्द्रायणादिना न तप्तं तनुर्यस्य सोऽतप्त तनुः’ अर्थात् कृच्छ, चान्द्रायण, पराक् एवं एकादशी आदि व्रतों के द्वारा जिसका तनु तप्त नहीं हुआ वही ‘अतप्त तनुः’ अपक्व आम्रतुल्य है। ऐसे व्यक्ति को भगवत-पद-प्राप्ति नहीं हो सकती। तात्पर्य यह कि भगवत-पद-प्राप्ति-हेतु तप्त तनु होना अनिवार्य है। हमारे मतानुसार तो चन्द्रायण, कृच्छादि अनेकानेक कठिनतम व्रत तथा शंख-चक्रादि को धारण करना भी पुण्य-कर्म है अतः वाछनीय है तथापि भगवत-विप्रयोग-जन्य-तीव्रताप से दग्ध होते प्राणी ही यथार्थ ‘तप्त- तनु’ है; इस ताप से दग्ध प्राणी के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों ही ‘तनु’ दग्ध हो भस्मीभूत हो जाते हैं। ‘जरयत्याशु याकोषं[1] अर्थात् अनिमित्ता भागवती भक्ति, निष्काम भागवती भक्ति, सिद्धि से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सिद्धि अर्थात् मुक्ति अनिमित्ता भगवती भक्ति अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय आदि पंचकोषों को, कंचुकों को, शीघ्रातिशीघ्र जलाकर भस्म कर देती है, जैसे- ‘निगीर्णमनलो यथा।’ जैसे मुक्त अन्न को जठरानल भस्म कर देता है। भगवत-विप्रयोग-जन्य तीव्र-तापानुभूति को प्रज्वलित कर देना ही सम्पूर्ण व्रत, यम, नियमादि धर्म-कामों का अन्तिम लक्ष्य, परम पुरुषार्थ है। वस्तुतः तो आदिकाल से ही प्राणीमात्र भगवत-विप्रयोग-ताप से त्रस्त रहता हुआ भी उसका अनुभाव नहीं कर पाता। जैसे आतप के ताप-सन्ताप के अनन्तर ही छाया के सुख की मूल प्रतीति हो पाती है, वैसे ही, संयोग-सुख के रसास्वादन से ही विप्रयोगजन्य तीव्रताप की अनुभूति होती है; भगवत-सन्निधान प्रत्यक्षतः भी प्राप्त होता है‚ यदा-कदा मानसी अनुभूति भी होती है; मानसी अनुभूति की महिमा निराली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री0 भा0, 3/25/32