गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12भक्तों की यह विनम्रता केवल-मात्र बाणी का विषय नहीं है; असम्यग्दर्शी बहिर्मुखो प्राणी ही अपने आप में अधिकाधिक गुणगण-सम्पादन्नता की कल्पना करता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों के महत्त्वातिशायी गुणों को भी परमाणु तुल्य अनुभव करते हैं। इसके विपरीत संतजन अपने अवगुण एवं दूसरों के गुणों का ही अनुभव कर पाते हैं। वस्तुतः तो भगवत-सम्मिलन अनन्त है; अजर, अमर, अखण्ड स्वप्रकाश विशुद्ध स्वान्तरात्मा ही भगवान् है। जैसे, विस्मृत कंठमणि का पुनः प्रबोध किंवा साक्षात्कार ही उसकी प्राप्ति है; वैसे ही, सर्वव्याप्त, सर्वान्तरयामी, सर्वातमा स्वरूप का पुनः प्रबोध, साक्षात्कार ही भगवत-सम्मिलन है। अप्राप्त में प्रेप्सा होती है; विस्मृत हो जाने के कारण अप्राप्त प्रतीत होती कंठमणि में भी प्रेप्सा भी दो प्रकार की होती है; एक प्रयास-साध्य, दूसरी ज्ञान-साध्य; जैसे विस्मृत कंठमणि की प्राप्ति तदर्थ प्रेप्सा उद्भूत होती है प्रेप्सा की निवृत्ति ज्ञान-साध्य है परन्तु अप्राप्त ग्रामादि की प्रेप्सा की निवृत्ति प्रयत्न-साध्य है। भगवत-साक्षात्कार हेतु प्रतिबंध निवृत्ति अनिवार्य है; प्रतिबन्ध-निवृत्ति हेतु सम्मिलनजन्य आनन्द एवं विप्रयोग-जन्य तीव्रतापानुभूति परमावश्यक है। श्रीमद् वल्लभाचार्यजी के सम्प्रदाय में विप्रयोगजन्म तापानुसन्धान ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मान्य है। उपासक स्वयं में गोपांगना भाव की कल्पना उस पर विरहताप का अनुभव करे जो भगवान् श्रीकृष्ण के मथुरा एवं द्वारिका पधारने पर गोपाङनाओं को हुआ था; यही तापानुसन्धान का स्वरूप है। रामानुज-संप्रदाय में भी ‘अतप्ततनुर्नतदामो अश्नुते[1]। श्रुति का विशेषतः महत्त्व होता है। जिसका तनु संख चक्र के ताप से तप्त नहीं हुआ वह ‘अतप्त तनु’ है; अतप्त-तनु अपक्व होने के कारण स्वर्ग को प्राप्त नहीं होता; भगवत-स्वरूप-सम्मिलन ही स्वर्ग है- ‘यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। वस्तुतः ‘स्वर्गे ज्ञेये लोके प्रतिष्ठति’ इत्यादि अनेक उपनिषद-पदों में स्वर्ग शब्द का अर्थ ही सच्चिदानन्दघन परात्पर परब्रह्म है। अस्तु, अतप्त-तनु, अपक्व उपासक ब्रह्म-पद को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। उपर्युक्त मंत्र ऋग्वेद के ‘पवमानी’ सूक्त का अंश भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ., सं. 9/83/1