गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12महर्षिगण श्वेत द्वीप पधारे; वहाँ भी उन्होंने घोर तप किया; फलतः उनको कुछ शब्द सुनाई दिए; श्वेत-द्वीप-निवासी भगवत्-स्तुति करते हैं-‘जितं ते पुण्डरीकाक्षं नमस्ते विश्वभावन’ इत्यादि; महर्षियों ने इस स्तुति के ही शब्द सुने; कलान्तर बाद उनको किसी श्वेत द्वीप निवासी का दर्शन भी प्राप्त हुआ। उन्होंने महर्षियों से कहा, ‘आप-लोगों को इस जन्म में भगवद्दर्शन नहीं प्राप्त होंगे। इस शरीर को त्याग कर आप चित्रकूट में बन्दर-भालू बनें; राघवेन्द्र रामावतार स्वरूप में भगवान् वहाँ पधारेंगे तब आपको उनका दर्शन एवं सान्निध्य प्राप्त होगा।’ अस्तु, भगवद्दर्शन अत्यन्त दुर्लभ ‘तद्दूरे तद्वन्तिके[1] दूरात् सुदूरे तद्धिन्तिके च’[2] हैं; इस स्वरूप में भक्त को भगवान् को निष्ठुरता, रूक्षता की प्रतीति होती है। भगवान् का अन्य स्वरूप ‘दुअन्ति के’ अत्यन्त सन्निकट है। वे तो सर्वदा सर्व-हृदयेश्वर, सर्वान्तरयामी हैं; तात्पर्य यह है कि सर्वान्तरयामी प्रभु के प्रत्यक्षी-करण-हेतु भी कठिन प्रयास अनिवार्य है; परम-प्रेमास्पद, हृदयेश्वरसम्मिलन के आशाबंध के कारण ही उत्कट उत्कण्ठा एवं तज्जन्य कठिन प्रयास भी संभव है। स्वभावतः ही सुलभ में उत्कण्ठा नहीं होती, दुर्लभ में ही, उत्कट उत्कण्ठा एवं तज्जन्य कठिन प्रयास होता है। उच्चात्युच्च कोटि के भक्तों को भी भगवान् अत्यंत दुर्लभ प्रतीत होते हैं। उदाहरणतः वृषभानुनंदिनी, नित्य- निकुंजेश्वरी, रासेश्वरी, राधारानी यद्यपि भगवान् सच्चिदानन्द आनंद-सिन्धु की, माधुर्य-सार-सर्वस्व की अधिष्ठात्री एवं हृदयेश्वरी हैं तदपि उनको भी कृष्ण-सम्मिलन ऐसा दुर्लभ प्रतीत होता है जैसा रंक के लिए चिंतामणि की प्राप्ति कल्पनातीत है। भक्त-प्रवर सूरदास जी भी कहते हैं- ‘जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बढ़िइ कथा पार नहीं लहऊँ। |