गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 355

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

अन्ततोगत्वा तात्पर्य यह कि भगवान अच्युत का प्रत्यक्षतः किंवा ध्यानगम्य आश्लेष-जन्य आनन्दोद्रेक होने पर ही विप्रयोग-जन्य तीव्र-तापानुभूति सम्भव हो सकती है; दौर्लभ्य-सौलभ्य की संधि ही उत्कट प्रीति का एकमात्र स्थल है। गोपाङनाओं में अहंकार का उदय हुआ; सर्वशक्तिमान् अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नामक, सर्वेश्वर प्रभु भी हमारे वशीभूत हो दारुयन्त्रवत् हमारा अनुसरण कर रहे हैं; इस दर्प के उदय होते ही भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये; भगवत-विप्रयोग-जन्य तीव्र-ताप से उनका अहंकार दग्ध हो गया।

अस्तु ‘आ ईषदपि न न यस्मिन् तत् आननम्’ किंचिदपि याञ्चा-अस्वीकार नहीं है जिसमें ऐसा भवदीय ‘आननं मुखं’ अथवा ‘आसमन्तात् न न यस्मिन्’ सर्वथा अस्वीकार जिसमें है ही नहीं ऐसा भगवदीय ‘आनंन-मुखं।’ उत्कट उत्कण्ठा उद्भूति-हेतु हो भगवान् अपने अलौकिक स्वरूप को छिपा कर लौकिक स्वरूप में अवतरित होते हैं। भगवान् का अलौकिक स्वरूप अदृश्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, अव्यवहार्य, चैत्य-विवर्जित, अनन्त चिति, स्वप्रकाश अखण्ड-बोध दृष्टारूप हैः इस स्वरूप में निरतिशय, रागानुगाप्रीति संभव नहीं हो सकती; स्वभाव-सिद्धि निरतिशय प्रीति होते हुए भी अनुभव का विषय नहीं; स्वरूप साक्षात्कार बिना स्वाभाविकी निरतिशय प्रीति का परिचय सर्वथा असम्भव है। अप्रसिद्ध में प्रीति नहीं होती, ऐसा लोक में विधान होता है।

‘विधिरत्यन्तमप्राप्तौ’ अत्यन्त अप्राप्ति में ही विधि होती है। उदाहरणतः ‘भोजनस्य रागप्राप्तस्य’ क्षुधा-निवृत्ति में प्राणीमात्र की प्रवृत्ति स्वभावतः होती है अतः भोजन में विधी नहीं परन्तु भोजन की प्रक्रिया में शिष्टाचार-परक विधान होते हैं। यथा ‘एवं भोजनं कर्तव्यं न पराङ्मुखेन, न दक्षिण मुखेन आद्र हस्तपादादिना’ इत्यादि नियम विशेष हैं। सर्वदा ही विधि अप्रवृत्तप्रवर्तक है। जैसे अग्निहोत्रादिक-कर्म में प्राणी की प्रवृत्ति स्वाभाविक नहीं है। अग्नि- होत्रादि स्वर्ग का कारण है, यह भी प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाण द्वारा नहीं जाना जा सकता; ‘अज्ञातज्ञापकत्वं हि प्रमाणानं’ अज्ञात-ज्ञापकता ही प्रमाणों का प्रामाण्य होता है; अग्निहोत्रादि कर्म एवं स्वर्ग-प्राप्ति में कर्म-कारण-भाव प्रत्यक्ष-प्रमाण से अविदित होते हुए भी ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः’ वचन द्वारा अज्ञात-ज्ञापकत्वेन प्रामाण्य है और अप्रवृत्त-प्रवत्तकत्वेन इसमें विधित्व भी है। तात्पर्य यह है कि सहज प्रेम के गोचर बनने के लिए अलौकिक भी लौकिकवत् हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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