गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11‘तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां। वृन्दाटवी के द्रुम, लता, दूर्वा, पाषाणादि कुछ भी होकर हम अपने आप को भूरिभाग, विरिष्ट सौभाग्यशाली समझेंगे। एकनाथजी कृत ‘भाव रामायण’ में भगवती सती को भ्रम हो जाने वाली कथा विशेष विस्तार के साथ दी गई है। राघवेन्द्र रामभद्र, वनवास-काल में रावण द्वारा सीता-अपहरण के अनन्तर उनके विप्रयोगजन्य तोव्रताप सं संतप्त हुए उनको खोजते हुए वन-वन में भटक रहे हैं; तीव्रताप-जन्य उन्माद में कहीं किसी कथा का अलिंगन करते हैं तो कहीं किसी पाषाण का चुम्बन करने लगते हैं। इस अपूर्व दृश्य को देखकर भगवती सती को राघवेन्द्र रामभद्र की अखिल ब्रह्माण्ड नायकता, सर्वशक्तिमत्ता, सर्वज्ञता में सन्देह होने लगा, अतः वे उनकी परीक्षा लेने चल पड़ी; भगवती सती जनक-नन्दिनी जानकी का रूप धारण कर रामभद्र के मार्ग में आ खड़ी हुई; उनको देखते ही श्रीरामभद्र ने नमस्कार करते हुए कहा- ‘माता! आप वन में अकेली क्यों खड़ी हैं? भगवान् वृषकेतु कहाँ हैं?’ इस प्रश्न को सुनकर भगवती सती अत्यन्त लज्जित हुई; इतने में ये ही भगवती ने देखा कि अणु-परमाणु में सीता एवं राम विद्यमान हैं। आश्चर्य चकित हो भगवती सती राघवेन्द्र रामभद्र से प्रश्न करती हैं, ‘हे प्रभो! आप ही सवेश्वर, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वान्तर्यामी, सर्व-स्वरूप, सर्वदासावधान, सर्वज्ञ, सर्वाधिष्ठान हैं, फिर भी अत्यन्त व्याकुल विरहीवत् प्रलाप करते हुए कहीं पाषाण का चुम्बन करते हैं तो कहीं द्रुम-लतादिकों को अपने आलिंगन में भर लेते हैं; आपकी इन विहल चेष्टाओं को देखकर सहज ही भ्रम उत्पन्न हो जाता है। हे प्रभो! आपकी इस अचिन्त्य लीला का क्या रहस्य है? भगवान् राघवेन्द्र रामभद्र उत्तर दे रहे हैं, ‘माता! इन लीलाओं का वास्तविक रहस्य तो भूत-भावन भगवान् विश्वनाथ ही जानते हैं। जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त हमारी आराधना में रत अनेकानेक उपासक, अनेकानेक योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलात्मा परमहंस ऋषि-महर्षिगण ही इन पाषण खण्ड, द्रुमलता दु्रर्वादि रूपों में हमारी संस्पर्श कामना से आविर्भूत हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् भा0 10/14/34