गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 330

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 11

ज्ञानी उद्धव भी प्रार्थना करते हैं-

‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां,
वृन्दावनने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमापथं च हित्वा,
भेजुर्मुकुन्दपदवों श्रुतिभिविंमृग्याम्।।’[1]

अर्थात, दूर्वा लता द्रुम पाषाणादि किसी भी रूप में मुझको वृन्दावन में स्थान प्राप्त हो ताकि दुस्त्यज आर्य-पथ को त्यागकर मुकुन्द की शरण जाने वाली व्रजाङनाओं का पद-रज- संस्पर्श मुझको प्राप्त हो सके। ब्रह्मा भी कहते हैं-

तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम्।
यंनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्।।[2]

अर्थात, हे प्रभो आपका भक्त बनकर, किसी भी रूप में रहकर आपके चरणारविन्दों की सेवा कर सकूँ और आपके पद-पद्य-रज को पा सकूँ। इतना ही नहीं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद् भा0 10/47/61
  2. श्रीमद् भा0 10/14/30

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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