गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप में परम आत्मीयत्वेन इनका संस्पर्श आलिंगनादि कदापि संभव नहीं हो सकता, एतावता भगवती सीता के विप्रयोग जन्य तीव्रतापोन्माद-व्याज से ही हम इनकी वांछापूर्ति कर रहे हैं, इसी तरह, आनन्द कन्द परमानन्द भगवान् कृष्णचन्द्र भी गोचारण के व्याज से वृन्दाटवी में अटन करते हुए भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित विभिन्न अनन्यभक्तों की निरावरण-भगवत् पादारविन्द-रज-संस्पर्श-कामना की पूर्ति करते हैं। पूर्व-प्रसंगों में बताया जा चुका है कि आत्माराम भगवान् श्रीकृष्ण का रमण आत्मा में ही सम्भव है; अनात्मा में आत्माराम का रमण सर्वथा असम्भव है। आनन्द कन्द परमानन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द स्वयं निरावरण ब्रह्म हैं। हरिर्हि निर्गुणः साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः। हरि साक्षात् निर्गुण है; सत्त्वगुणयुक्त होते हुए भी हरि निर्गुण हैं। जैसे चक्षु एवं सूर्य के बीच काष्ठ-खण्ड आ जाने से चक्षु के लिए सूर्य का स्वरूप आच्छादित हो जाता है परन्तु सूक्ष्म-वोक्षण यंत्र द्वारा विशिष्टतः दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही गुण उपाधि के कारण भगवत्-स्वरूप प्रावृत नहीं होता अपितु सूक्ष्म वीक्षण यंत्र सं दृष्ट दृश्यवत्, विशिष्ट सौन्दर्य माधुर्य- सौरस्यपूर्ण दृष्टिगोचर होता है। |