गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 332

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 11

मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप में परम आत्मीयत्वेन इनका संस्पर्श आलिंगनादि कदापि संभव नहीं हो सकता, एतावता भगवती सीता के विप्रयोग जन्य तीव्रतापोन्माद-व्याज से ही हम इनकी वांछापूर्ति कर रहे हैं, इसी तरह, आनन्द कन्द परमानन्द भगवान् कृष्णचन्द्र भी गोचारण के व्याज से वृन्दाटवी में अटन करते हुए भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित विभिन्न अनन्यभक्तों की निरावरण-भगवत् पादारविन्द-रज-संस्पर्श-कामना की पूर्ति करते हैं। पूर्व-प्रसंगों में बताया जा चुका है कि आत्माराम भगवान् श्रीकृष्ण का रमण आत्मा में ही सम्भव है; अनात्मा में आत्माराम का रमण सर्वथा असम्भव है। आनन्द कन्द परमानन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द स्वयं निरावरण ब्रह्म हैं।

हरिर्हि निर्गुणः साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन् निर्गुणो भवेत्।।[1]

हरि साक्षात् निर्गुण है; सत्त्वगुणयुक्त होते हुए भी हरि निर्गुण हैं। जैसे चक्षु एवं सूर्य के बीच काष्ठ-खण्ड आ जाने से चक्षु के लिए सूर्य का स्वरूप आच्छादित हो जाता है परन्तु सूक्ष्म-वोक्षण यंत्र द्वारा विशिष्टतः दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही गुण उपाधि के कारण भगवत्-स्वरूप प्रावृत नहीं होता अपितु सूक्ष्म वीक्षण यंत्र सं दृष्ट दृश्यवत्, विशिष्ट सौन्दर्य माधुर्य- सौरस्यपूर्ण दृष्टिगोचर होता है।
‘सर्व खल्विदं बह्मम्’[2] के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्मरूप है तथापि रज एवं तम उपाधियुक्त होने के कारण सावरण है। जैसे प्रत्येक काष्ठ खण्ड में अग्नि समाहित रहते हुए भी अव्यवत रहती है, वैसे ही, सावरण ब्रह्म स्वरूप त्रिगुणात्मक अखिल विश्व में भी ब्रह्म अव्यक्त ही रहता है। जैसे व्यक्ताग्नि-काष्ठ के संसर्ग से अव्यवताग्नि -काष्ठ में भी अग्नि प्रस्फुटित हो जाती है, वैसे ही निरावण ब्रह्म के संसर्ग से सावरण ब्रह्म भी निरावृत हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री0 भा0 10/88/5
  2. छा0 3/14/1

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
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19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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