गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे नाथ हम तो अपने हृत्-स्थित आनंद-समुद्र को दग्ध करने वाली मनोज रूप बड़वाग्निप्रशमन हेतु भी आपके स्वतः विकसित सुकोमल कमल से भी शतगुणाधिक सुकुमार पादारविन्दों हमारे कर्कश-उरोजों के कारण आघात लग जाने के भय से ही उनको अपने उरस्थल में विन्यस्त नहीं करती हैं; परन्तु आप हमारे इस करुण भाव की भी उपेक्षा कर केवल मात्र हमारी दृष्टि के अगोचर रहने हेतु ही इस अन्धकारमयी रात्रि में निरावरण चरणारविन्दों से वृन्दावन के वन-प्रान्तर में इतस्ततः अटन कर रहे हैं। ‘न वाअरे प्रत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय संसार के यावत सुख एवं ऐश्वर्य स्वात्मा के लिए सुखद होकर ही प्रिय होते हैं; जो स्वात्मा के लिए सुखद न हो वह प्रिय भी नहीं होता। प्राणी मात्र स्वभावतः स्वात्मा से प्रेम करता है। यह अभेद रति ही आत्मरति है; एतावता प्रेम के एकमात्र आस्पद एवं आश्रय रस-स्वरूप सच्चिदानन्दघन, सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही हैं। गोपांगनाएँ कहती हैं, ‘हे नाथ! हे कान्त! आपको परम रसिक, रसिक शिरोमणि जानकर आपका अनुगमन करती हुई हम वृन्दावन तक चली आई हैं आप और ‘रसानभिज्ञवत् रसज्ञोपि सन् रसानभिज्ञान् पशून् अनुचरसि’ रसानभिज्ञ की भाँति हमारा त्याग कर इन रसानभिज्ञ पशुओं का अनुगमन कर रहे हैं। हे कान्त! आपका रस वैदिग्ध्य वस्तुतः विचित्र है। भक्त मुचुकुन्द को तो आपने बदरीनारायण जाकर तप करने का आदेश दिया परन्तु शिशुपाल, कंस पूतनादिकों को तुरंत ही मुक्ति प्रदान कर दी। कोई भक्त भगवान् से परिहास करते हुए कहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृ0 आ0 4/5/6