गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11‘गोपालाजिरकर्दमे विहरसे विप्राघ्वरे लज्जसे, अर्थात, हे गोपाल! तुम गोपजनों के आंगन की कीच में तो खेलते रहते हो, परन्तु ऋषि-महर्षियों द्वारा यज्ञ-अनुष्ठानादि हेतु निर्मित दिव्य मण्डपों में जाते हुए संकोच, लज्जा का अनुभव करते हो। हे व्रजेन्द्रनन्दन! तुम गोकुल गाँव की पुंश्चली युवतियों की दो दासता करते हो, परन्तु शान्त, दान्त, ब्रह्मविद् विरष्ठजनों को स्वामित्व ही करते हो। गाय-बछ़डों की हुंकार पर तत्काल बोल पड़ते हो परन्तु योगीन्द्र मुनीन्द्र जनों द्वारा विधिवत् की गई अनेकानेक स्तुतियों को सुनकर भी मौन ही रह जाते हो। हे श्रीकृष्ण! आपकी ऐसी विचित्र रस-वैदग्ध्यमयी माया को हम लोग नहीं समझ पाते हैं। एक कथा है; एक दिन नन्दरानी ने अपने बालक पुत्र श्रीकृष्ण को नहला-धुलाकर दिव्य अंगरागादि लेपन कर उत्तमोत्तम वस्त्रभूषणों से सुसज्जित किया; अम्मा की आँखों के ओट होते ही बालकृष्ण पुनः आंगन की बीच में खेलते हुए, कीचड़ से सन गये। खीझ कर नन्दरानी कह उठीं- ‘त्वं शूकरोसि गत जन्मनि पूतनारे।’ हे पूतनारे! ‘तू विगत जन्म में अवश्य ही शूकर रहा होगा।’ बाल कृष्ण हँसने लगे, बोले ‘अम्मा! तू ठीक ही तो कहती है।’ |