गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 11कात्यायन लिखते हैं- ‘देवानां प्रियः इति मूर्खे’[1] बृहदा-रण्योपनिषद् का उल्लेख है ‘यो न्यांदेवतामुपास्ते न्यो सावन्यो हमस्मीति न स वेद यथा पशुः’[2]। हमारे इष्ट, हमारे उपास्यदेव अन्य हैं और मैं अन्य हूँ, तात्पर्य जो अपने इष्टदेव, उपास्यदेव से भेदभाव रखते हुए उपासना करता है वह देवताओं का पशु है। जैसे पशु, अनेक प्रकार से अपने स्वामी की सेवा करता हुआ उसका अनुगमन करता है, वैसे ही, कर्मकाण्डी भी जप, तप, व्रत एंव दानादि के द्वारा नाना प्रकार के कर्मानुष्ठान करता हुआ तत्-तत् देवता की सेवाअर्चा करता हुआ उसका अनुगमन करता है। ‘इन्द्राय वषट् अग्नये वषट्’ इत्यादि रूप से तत्-तत् चरू-पुरोडाश आदि हव्य तत्-तत् देवताओं के उद्देश्य से त्याग करता हुआ देवताओं का उपकार करता है; एतावता ब्रह्मज्ञानी जीवोपासक देवताओं को अप्रिय हो जाता है। जैसे, पशु रोगी हो जाने पर अपने स्वामी की सेवा में असमर्थ हो जाता है वैसे ही उपासक भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर देवताओं के उपकार में समर्थ हो जाता है। भागवत कथन है ‘स्वौको विलंध्य व्रजतां परमं पदंते।’[3] अर्थात्, श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा भगवत्-स्वरूप-दर्शन, भगवत्-साक्षार्तकार प्राप्त कर इन्द्रपद का भी उल्लंघन कर ब्रह्मलोक प्राप्ति में तत्पर जनों की उपासना में इन्द्र विघ्न उपस्थित करता है। ‘यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा’[4] स्वयं स्वयंभु ने ही यज्ञ के लिए पशुओं का निर्माण किया; एताएवता पशु ‘देवानां प्रिय’ हैं। पशु स्वभावतः ही मूर्ख एवं रसानभिज्ञ हैं; अस्तु अत्यंत प्राचीनकाल से ही ‘देवनां प्रिय’ उक्ति ‘मूढ’ अर्थ में रूढ़ है। सूर्य, इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवगणों के प्रीत्यर्थ यज्ञहुतियाँ दी जाती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण सर्व देवात्मक है। ‘महाभारत’ में उल्लेख है। ‘सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति’[5] अन्याय सम्पूर्ण देवताओं के प्रति पगति किया गया नमस्कार केशव भगवान् को ही प्राप्त होता है। गोपाङनापएँ कहती हैं-‘हे श्यामसुन्दर! तुम-को यदि पशुचारण ही अभीष्ट हो तो हम भी पशुवत् ही हो रही हैं; हमारा विवेक हमारा चातुर्य, हमारी विदग्धता सब आपके विरहानल में दग्ध हो चुको हैं। |