गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द8.सांख्य और योग
अद्वैतवाद की सूत्रबद्ध परिभाषाओं का अतिक्रम कर जाने का दावा करने वाले उच्चतम भक्तियोग का आधार यही पुरुषोत्तम-भाव है और भक्ति-प्रधान पुराणों के पीछे भी यही भाव है। गीता सांख्यशास्त्र के प्रकृति-विश्लेषण के चौखटे के अंदर भी बंधी नहीं रहती; क्योंकि इस विश्लेषण के अनुसार प्रकृति में केवल अहंकार को स्थान मिलता है, बहुपुरुष को नहीं-वहाँ पुरुष प्रकृति का कोई अशं नहीं, बल्कि प्रकृति से पृथक है इसके विपरीत गीता का सिद्धांत यह है कि परमेश्वर ही अपने स्वभाव से जीव बनता है। यह कैसे संभव है जब विश्व-प्रकृति के चौबीस तत्त्व है, चौबीस छोड़कर कोई पच्चीसवां तत्त्व नहीं? गीता के भगवान् गुरु कहते है कि हां, त्रिगुणात्मिका प्रकृति के बाह्मकर्म का यही सही विवरण है और इस विवरण में पुरुष और प्रकृति का जैसा संबंध बताया गया है, वह भी विल्कुल सही है और प्रवृत्ति या निवृति के साधन में इसका बहुत बड़ा व्यावहारिक उपयोग भी है; परंतु यह त्रिगुणत्मिक अपरा प्रकृति है जो जड़ और बाह्म है, इसके परे एक परा प्रकृति है जो चिस्वरूपा और भागवत-भावरूपा है और यही परा प्रकृति जीव बनी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुरुष...-अक्षरात्... परत: पर:- यद्यपि अक्षर पुरुष परम है, पर उससे भी परे एक परम पुरुष है, उपनिषदें ऐसा कहती हैं।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज