गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द8.सांख्य और योग
बुद्धि ही मन के द्वारा होने वाली विषय-प्रतीत से अपना संबंध जोड़ती रही है; बुद्धि ही विश्व-प्रकृति के द्वारा होने वाले कर्मों का व्यतिरेक और अन्वय करती और अहंकार की सहायता से प्रकृति के विचार, अनुभव और कर्म के साथ द्रष्टा पुरुष का तादात्म्य- साधन करती रही है। यही बुद्धि फिर विवेक द्वारा इस कटु और विघटनात्मक अनुभूति को प्राप्त होती है। कि प्रकृति के साथ पुरुष का तादात्म्य केवल भ्रम है; अंत में इसको यह विवेक होता है कि पुरुष प्रकृति से अलग है और यह सारा विश्वप्रपंच प्रकृति के गुणों की साम्यावस्था का विक्षोभमात्र है। तब बुद्धि, जो एक ही साथ बुद्धि और संकल्प-शक्ति भी है, इस मिथ्यात्व से तुरंत हट जाती है जिसका वह अब तक पोषण करती रही है, और पुरुष बंधन-मुक्त हो जाता है और विश्वप्रपंच में रमने वाले मन का संग नहीं करता। इसका अन्तिम फल यह होता है कि प्रकृति की पुरुष में प्रतिभासित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है। क्योंकि अहंकार का प्रभाव अब नष्ट हो गया है और बुद्धि-संकल्प के उदासीन हो जाने के कारण प्रकृति की अनुमति का साधन नहीं रहता: तब अवश्य ही उसके गुण आप ही साम्यावस्था को प्राप्त होगें, विश्व-प्रपंच बंद हो जायेगा और पुरुष को अपनी अचल शांति में लौट जाना होगा। परंतु यदि पुरुष एक ही होता तो बुद्धि-संकल्प के भ्रम से निवृत्त होते ही सारा विश्व-प्रपंच बंद हो जाता। पर हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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