गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द6.मनुष्य और जीवन-संग्राम
अर्जुन को जो विराग हुआ है वह सत्य की ओर प्रवृत रजोगुणी पुरुष का कर्म से तामस विराग है। गुरु चाहे तो उसे इसी रास्ते पर स्थिर कर सकते हैं, इसी अंधेरे दरवाजे से विरक्त जीवन की शुद्धता और शांति में उसे प्रविष्ट कर सकते हैं; अथवा इस वृत्ति को तुरंत शुद्ध करके वे उसे संन्यास की सात्त्विक प्रवृति के अतिउच्च शिखरों पर चढ़ा सकते हैं। पर वास्तव में वे इन दोनों में से एक भी नहीं करते। गुरु उसके तामस विराग और संन्यास ग्रहण करने की प्रवृति से उसका चित फेरते हैं और कर्म को ही जारी रखने के लिये कहते हैं और वह भी उसी भीषण और घोर कर्म को। परंतु इसके साथ ही इसे एक दूसरे और ऐसे आंतरिक वैराग्य का निर्देश करते हैं जो उसके संकट का सच्चा निराकरण है, और जो विश्व प्रकृति पर जीवन की श्रेष्ठता स्थापित करने का रास्ता है और यह होते हुए भी मुनष्यों को स्थिर और आत्म-अधिकृत कर्म में प्रवृत्त रखता है। शारीरिक नहीं, बल्कि आंतरिक तपस्या ही गीता में अभिप्रेत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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