गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द6.मनुष्य और जीवन-संग्राम
पर उसका यह विश्वास चूर-चूर हो गया और वह अपने सहज-स्वभाव से तथा जीवन-संबंधी अपने मानसिक आधर से एक भीषण आघात खाकर गिर पडा; इसका कारण यह हुआ कि राजसिक अर्जुन में तमोगुंण की एक बाढ़ आ गयी और इसने उसको आश्चर्य, शोक, भय, निरूत्साह, विषद, मन की व्याकुलता और अपने ही तर्को के परस्पर- संग्राम द्वारा व्यथित कर इस कार्य से मुहं मोड़ने के लिये उकसाया और वह अज्ञान और जड़ता में ढूब गया। परिणाम यह हुआ कि वह संन्यास की और मुड़ा। वह सोचने लगा कि इस क्षात्र-धर्म से जिसका फल अविवेक पूर्ण संहार है, प्रभुता, यश और अधिकार के सिद्धांत से होने वाले नाश और रक्तपात से, रक्तरंजित सुखभोग से, न्याय और धर्मविरोधी उपायों से सत्य और न्याय की स्थापना करने से, और एक ऐसे युद्ध के द्वारा सामाजिक विधान की रक्षा करने से जो समाज की प्रक्रिया और परिणाम का विरोधी हो-इन सबकी अपेक्षा तो भीख मांगकर जीने वाले भिक्षुक का जीवन भी अच्छा है। संन्यास का अर्थ है जीवन और कर्म तथा प्रकृति के त्रिगुण का त्याग, किंतु इस त्रिगुण में से किसी एक गुण के द्वारा ही संन्यास की ओर जाना होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज