गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 20.स्वभाव और स्वधर्म
यह प्रगति त्रिगुण के नियम के अनुसार होती है। ज्ञानमय सत्ता के धर्म का अनुसरण करने का एक तामसिक और राजसिक ढ़ग भी हो सकता है, शक्ति के धर्म का अनुसरण करने का एक क्रूर तामसिक तथा उच्च सात्त्विक ढंग भी संभव है, कर्म और सेवा के धर्म के पालन का एक शक्तिपूर्ण राजसिक ढ़ग भी संभव है, कर्म और सेवा के धर्म के पालन का एक शक्तिपूर्ण राजसिक या सुन्दर एवं उदात्त सात्त्विक ढंग भी हो सकता है। आभ्यंतरिक व्यक्तिगत स्वधर्म के तथा जीवन-पथ पर वह हमें जिन कर्मों की ओर ले जाता है उनके सात्त्विक रूपतक पहुँचना पूर्णता प्राप्त करने की पहली शर्त है। और यह ध्यान देने की बात है कि आंतरिक स्वधर्म कर्म, पेशे या कर्तव्य के किसी बाह्म सामाजिक या अन्य रूप से नहीं बंधा होता। उदाहरणार्थ, हमारी कर्ममय सत्ता जो सेवा करने से ही तृप्त होती है या हमारे अंदर का यह कर्ममय तत्त्व ज्ञानान्वेषण के जीवन, संघर्ष-प्रधान और शक्तिमय जीवन या पारस्परिक संबंध, उत्पादन और आदान-प्रदान के जीवन को अपनी श्रम और सेवा की दैवी प्रेरणा की तृप्ति का साधन बना सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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